गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017

धर्म और उत्सव

सरस्वती पूजा हो , काली पूजा हो, दूर्गा पूजा हो , सभी में देखिएगा कि नाच गाना , अश्लील और फूहड़ गाने , पंडाल के पीछे शराब आदि चलता है । इन पर उँगली उठाइए तो मुसलमानों , इसाइयों , नास्तिकों आदि का हवाला देकर बचाव किया जाता है । भले ही नितांत धार्मिक हिंदू भी इन सबसे दूखी हो । वे बिगाड़ के डर से / धर्म विरोधी समझे जने के डर से चूप रहते हैं ।
समस्या की जड़ है कि समाज में शराब को शैतान का पेय मान लिया गया है । इसे चाय/कॉफी आदि की तरह सामान्य पेय माना ही नहीं जाता है । नाचना भी एक फूहड़ काम माना जाता है । इसलिए हिंंदी बेलंट में कोई नाच का आम जन में लोकप्रिय और स्वीकृत नृत्य स्वरुप नहीं मिलता है । लेकिन धार्मिक उत्सव के नाम पर छूट मिल जाती है । साल में एकाध बार ही तो पीता खाता है , हुड़दंग करता है - इस वजह से लोग आँखे मुँद लेते हैं ।
निदान ये है कि शराब /नृत्य को सहजता से स्वीकृत किया जाए । यह साल में एकाध बार होने वाला नहीं सप्ताहांत वाला कार्यक्रम होना चाहिए । इसके लिए महँगे बार या डिस्को की जरुरत नहीं होना चाहिए । लोग मैदानों में , घरों में मिले , नाचे गाएँ , मर्जी हो तो नियंत्रण में शराब भी पियें । नतीजा यह होगा कि धार्मिक उत्सवों की आढ़ लेना बंद कर देंगे और यह नियंत्रित भी रहेगा ।
नास्तिक होने के बावजूद धर्म /त्योहार मनाने की स्वतंत्रता का हिमायती हूँ । आलोचना गलत को इंगित करने के लिए है । वैसे धर्म /त्योहार आदि की सफाई/सुधार करने की जिम्मेदारी धार्मिकों की बनती है , नास्तिकों की नहीं ।
उत्सव को धर्म से अलग कीजिए । यह दोनों के लिए अच्छा है ।

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