बुधवार, 26 जुलाई 2017

नीतीश के इस्तिफे पर प्रतिक्रिया

जब नीतीश ने भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ा था , तब भी मेरी प्रतिक्रिया यही थी जो आज नीतीश के इस्तीफा देने पर है - ये क्या कर दिया !
मेरी चिंता का विषय न नीतीश और जद यू है , न ही लालू और राजद , न ही काँग्रेस या भाजपा !मेरी चिंता यह है कि बिहार में एक स्थिर सरकार रहे और सामाजिक न्याय के साथ विकास हो ।
वर्तमान सरकार में नीतीश कुमार को यह मौका था । भले ही नीतीश कुमार इसे नैतिकता के आधार पर इस्तिफा मनवाना चाहें , यह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का नतीजा है । हालाँकि राजनीति में न महत्वाकांक्षा गलत है , न अवसरवादिता , लेकिन यह तो पूछना ही पड़ेगा कि प्रयोजन क्या है !
प्रधानमंत्री बनने की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा तो भाजपा के साथ पूरी नहीं हो सकती । वर्तमान सरकार मेें अपने कद और पकड़ को बढ़ाने के लिए इस्तीफा देना बहुत बड़ा जूआ है । नीतीश लालू के साथ दूबारा जूड़ते हैं या भाजपा से , दोनों हालात में वे अविश्सवनीय रहेंगे और तभी तक उन्हें जरुरी माना जाएगा, जब तक भाजपा या राजद अकेले दम पर सरकार बनाने के लिए दाँव न खेले ! जद यू और नीतीश इसके लिए दाँव खेलेगी , इसकी संभावना कम है । उनके पास इस बात का लाभ है कि राजद और भाजपा एक साथ नहीं आ सकते ।कम से कम फिलहाल तो बिल्कुल नहीं ।
इसके साथ ही तीसरे मोर्चे की कल्पना या कांग्रेस के नेतृत्व में संयूक्त विपक्ष - जो पहले भी प्लानिंग के स्तर पर ही था और दूर की संभावना लग रही थी और भी असंभव हो गयी है ।
भाजपा समर्थक इसे एक विरोधी और संभावित खतरे के ढह जाने के रुप में देख रहे हैं , जिसके लिए वे बिहार सरकार के गठन से पहले भी लगे हुए थे । आश्चर्य नहीं कि खुद मोदी ने ट्विट कर नीतीश क समर्थन किया है ।
बिहार का भविष्य एक बार फिर अनिश्चय में है ।

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

विश्वविद्यालय पर हमला

एक बार फिर जेएनयू चर्चा में है । कारण शिक्षा के अलावा अन्य कारण से है जिसे उचित नहीं कहा जा सकता है । जेएनयू के अलावा जामिया , अलीगढ़ विश्वविद्यालय आदि भी शिक्षेतर कारणों से चर्चा में रहे हैं । इसका कारण सरकार का विश्वविद्यालय में गैरजरुरी हस्तक्षेप है । वर्तमान सरकार इन विश्वविद्यालयों में "अपने लोग " बैठाना चाहती है । इसके पहले की भी सरकारें अपने लोगों को उपकृत करती रही हैं । लेकिन ऐसे लोग चुने जाते थे जिनका अपने क्षेत्र में योगदान असंदिग्ध रहता था । लेकिन इस सरकार के पास ऐसे लोग हैं ही नहीं ।
ये विश्वविद्यालय देश के श्रेष्ठ विश्विद्यालय माने जाते हैं । इनकी भी अपनी कमियाँ हैं और इनमें भी सुधार की पर्याप्त संभावना है । फिर भी ये ऐसे ढेर सारे विश्वविद्यालयों से अच्छे हैं जिनका सत्र दो-तीन साल लेट चलता है । जिनसे संबद्ध कॉलेजों में पढ़ाई नहीं होती , पर्याप्त शिक्षक नहीं है , भवन भी नहीं है , जो कागज पर ही चल रहे हैं , जो बस डिग्री बाटने की दूकानें मात्र हैं ।
अफसोस की बात है ऐसे विश्वविद्यालयों को सुधारने के बजाए अपेक्षाकृत बेहतर विश्वविद्यालयों में राजनीतिक पकड़ बनाने के लिए शिक्षाविरोधी कदम उठा रही है और इन्हें बरबाद करने पर तुली है ।

सोमवार, 24 जुलाई 2017

विश्वविद्यालय में टैंक


यह खबर चौंका देने वाली लग सकती है - लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में बिल्कुल नहीं है - कि जेएनयू के कूलपति विश्वविद्यालय में टैंक लगाना चहते हैं ताकि विद्यार्थियों में "देशभक्ति " की भावना आए । 
पिछले दिनों जेएयू पर कई तरह के हमले हुए हैं । इसे बदनाम करने और प्रतिरोध की संस्कृति को नष्ट करने के कई उपाय किये गये हैं । साथ ही सीट कटौति जैसे छात्र और शिक्षण विरोधी कदम उठाए गये हैं । 
टैंक की स्थापना का विचार भी इसी दमन की अगली कड़ी है । इसका उद्देश्य छात्रों में देशभक्ति की भावना नहीं , बल्कि भय का संचार करना है । टैंक प्रतीक है निर्कुश सत्ता और दमन का , देशभक्ति का नहीं ।
यह भी गौरतलब है कि जेएनयू में परास्नातक और शोध करने वाले छात्र होते हैं । उन्हें प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थियों की तरह कोई भी बात - भले ही वह देशभक्ति हो - घूट्टी में नहीं पिलाई जा सकती है ।
विश्वविद्यालय को ज्ञान और शोध का केंद्र बने रहना चाहिए । यह अफसोस की बात है कि उच्च शिक्षा के शीर्ष संस्थान के कूलपति की चिंता में शिक्षा नहीं , देशभक्ति है ।

बुधवार, 19 जुलाई 2017

मायावती का इस्तिफा

संसंसद विचार विमर्श की जगह है । राजतंत्र में जब मुद्दे तलवार के दम पर तय होते थे , तब भी सूलह समझौते की गुंजाइश होती थी । लोकतंत्र में तो संसद है ही इसलिए कि लोग विचार विमर्श के बाद बहुमत के आधार पर निर्णय ले ।
ऐसे में मायावती को सहारनपुर के दलित विरुद्ध हिंसा पर न बोलने न देना , एक अलोकतांत्रिक कदम है । मायावती से असहमति और विरोध जताया जा सकता था, तर्क और तथ्य के सथ, लेकिन हुल्लड़बाजी कर बोलने से रोकना किसी भी तरह उचित नहीं है ।
बेहतर होता , कि मायावती इस्तिफा देने के बजाए हर हाल में अपना वक्तव्य देतीं या वही वक्तव्य प्रेस कान्फ्रेंस में देकर कर साथ में सोशल मीडिया के सहयोग से जन जन में फैलातीं । हालाँकि इस्तिफा देना भी गलत नहीं है ।
मायावती के विरोधी उन्हें दौलत की बेटी और जमीन से दूर नेत्री कहकर आलोचना करते रहे हैं । लेकिन इस मौके पर मायावती ने दिखाया कि उनके लिए दलित और उनके मुद्दे महत्वपूर्ण हैं ।
लालू यादव द्वारा उन्हें राज्यसभा भेजने का प्रस्ताव दलित पिछड़ों को सामाजिक और राजनीतिक एकता के लिए सकारात्मक कदम है ।हालाँकि इतना काफी नहीं और काफी कुछ किये जाने की जरुरत है ।
लोकतंत्र में संसद का रास्ता सड़क से होकर जाता है । संसद न सही , सड़क पर मायावती और अन्य बहुजन नेताओं को बोलना चाहिए ।
यह सवाल भी भाजपा के बहुजन नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि आखिर उन्होंने संसद में सहारनपुर और दलित उत्पीड़न के अन्य मुद्दे संसद में क्यों नहीं उठाये ? मायावती जब उन मुद्अदों को उठा रही थी तो पार्पटी लाइन के खिलाफ जाकर उनका समर्नेथन क्यों नहीं किया ? अपने क्षेत्र में बहुजनों के सशक्तिकरण के लिए कौन कौन से उपाय किये ?

शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

नीतीश कुमार की महात्वाकांक्षा

नीतीश कुमार की महात्वाकांक्षा प्रधानमंत्री बनने की है । पिछले वर्षों में उन्होंने जितनी भी चालें चलीं ,सब इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर चलीं । बिहार में 8 साल चल चुके भाजपा के साथ गठबंधन को तोड़ने के पीछे भी यही मंशा थी । वे मानकर चल रहे थे कि 2014 के लोकसभा चुनाव में काँग्रेस की वापसी नहीं होने वाली और भाजपा बहुमत से दूर रहेगी ।ऐसे में वे एनडीए के सर्वस्वीकार्य नेता के रुप में प्रधानमंत्री बन सकते थे ।मोदी का विरोध भी इसी गणित का हिस्सा था । ऐसा न होने पर भी जोड़तोड़ से वे तीसरे मोर्चे के मुखिया के बतौर प्रधानमंत्री बन सकते थे । लेकिन भाजपा के प्रचंड जीत से उनका गणित गड़बड़ा गया ।
फिर उन्होंने बिहार में सत्ता बचाने के लिए लालू से गठजोड़ किया और कम सीट जीतने के बाद भी मुख्यमंत्री बने । लेकिन लगता है कि वे फिर एक बार प्रधानमंत्री बनने की महात्वाकांक्षा के लिए बिहार सरकार दाँव पर लगाने के लिए तैयार हैं । हालाँकि महात्वाकांक्षा गलत नहीं है । लेकिन एक राज्य में सीमित पार्टी और गिनती के सांसद के भरोसे यह महात्वाकांक्षा सफलीभूत नहीं होगी ।नीतीश कुमार के लिए लिए तीसरा मोर्चा ही सबसे सही दाँव है ।
हालाँकि नीतीश कुमार चाहें तो बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर भी इतिहास में दर्ज हो सकते हैं । हालाँकि उनकी बिहार की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है , अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है ।एक अनिश्चित भविष्य की कल्पना में एक स्थिर सरकार को गिराना गलती होगी । और पहली बार गलती करके बच तो गये, शायद दूसरी बार न बचे !

रविवार, 9 जुलाई 2017

कार्यालय में ड्रेस कोड

पिछले दिनों कुछ सरकारी बैंकों ने गणवेश (ड्रेस कोड ) के लिए दिशा निर्देश जारी किये । कोई ड्रेस तो निर्धारित नहीं किया , लेकिन तकनीकि भाषा में जो निर्देश दिये , उन्हें कर्मचारी लोग सहज रुप से पालन करते ही हैं । ये निर्देश गैरजरुरी लगे ।
यहाँ मुझे एक घटना याद आ रही है जहाँ एक बैंक ने चार्जशीट में एक चार्ज यह भी लगाया था कि कर्मचारी - जो रिटायरमेंट के करीब पहुँचे यूनियन लीडर थे , कि वे कुर्ता पाजामा पहन कर ऑफिस आते हैं । मने हद है !
यह सच है कि एक ड्रेस रहने से एक तरह की साम्यता और अनुशासन झलकता है । लेकिन यह भी ध्यान देना चाहिए कि दर्शनीय होने के चक्कर में ड्रेस की सहजता न खो जाए । काम करने में परेशानी न होने लगे ।
किसी मॉल में काम करने वाली सेल्स गर्ल को देखिए । हाई हील उनके परिधान का हिस्सा है । पर जरा गौर कीजिए कि हाई हील में थोड़ी लंबी ,प्रभावशाली और शाइस्ता भले ही लगती हैं , लेकिन यह उनके काम को दूभर बनाता है जिसमें उन्हें लगभग दिन भर खड़े रहना पड़ता है । डोर टूडोर सेल करने वालों को चमड़े के जूते पहनने के लिए कहा जाता है , जिसमें ज्यादा चलना जो उनके पेशे में आवश्यक है , सही नहीं है । स्पोर्टस शू ज्यादा उपयूक्त है , भले ही थोड़ी कैजूअल फीलिंग आती हो ।
इस तरह गर्म मौसम में कोट और टाई लगाए साहबों को देखिए । एसी ऑफिस से एसी घर में आने वाले और बीच में एसी कार में सफऱ करने वालों को यह भले ही तकलीफदेह न लगे , लेकिन बिना एसी वाली जगह में दिन भर सूट पहनने की कल्पना कीजिए , जब पारा 45 + डिग्री हो ।
मेरे निजी मत में ड्रेस के मामले में दर्शनीयता से अधिक सहजता को महत्व दिया जाना चाहिए । कार्यालय में जिंस , स्पोर्टस शू आदि की स्वीकार्यता होनी चाहिए ।
फैशन के झक में लोग एक से एक असहज पोशाक पहनते ही हैं । कार्यस्थल पर इसे थोपना उचित नहीं ।