मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

फिल्म "लिपिस्टिक अंडर माई बूर्का " पर सेंसर और फतवे के खिलाफ प्रतिक्रिया !


एक नयी फिल्म आयी है - लिपिस्टिक अंडर माई बुर्का !फिल्म महिला केंद्रित बतायी जा रही है और विदेशी फिल्म समारोहों में सराही भी जा रही है ।
पहले तो पहलाज निहलानी के संस्कारी सेंसर बोर्ड ने फिल्म सर्टिफाई ही नहीं की । दूसरे - कुछ मूल्लों ने फिल्म के खिलाफ फतवा दे दिया । यह उदाहरण है इस बात का कि कथित हिंदूत्ववादी हों या कट्टर मुस्लिम - कई मामलों में एक जैसे हैं - मसलन महिला विरोधी रुख अपनाने में ।
मजे की बात यह है कि जब से मुल्लों ने फतवा दिया है , भाजपाई/संघी शोर मचा रहे हैं कि अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता के पैरोकर कहाँ हैं । जब तक सिर्फ पहलाज निहलानी फिल्म को रोक रहे थे , तब तक इन्हें फिल्म की परवाह नहीं थी । मूल्लों का फतवा आते ही इन्हें ध्रुवीकरण करने का मौका मिल गया है ।
इन्हें फिल्म से कोई मतलब नहीं है । वे इसपर भी ध्यान नहीं देंगे कि फतवे का कोई मतलब तब है जब फिल्म रिलीज होगी । फिल्म को सेंसर बोर्ड रिलीज ही नहीं होने देगी तो फिर क्या मतलब है फतवे का ?यहाँ गौरतलब है कि पहलाज निहलानी कोई वामपंथी /काँग्रेसी नहीं भाजपा समर्थित हैं । वे इस पर भी ध्यान नहीं देंगे कि फिल्म के समर्थन में कई आर्टिकल /पोस्ट/ब्लॉग लिखे जा चुके हैं । टाइम्स ऑफ इंडिया का आज का संपादकीय भी इसी पर है । लेकिन वे - कोई क्यों नहीं मूल्लों का विरोध करता है ।लोग मुस्लिम तुष्टिकरण करते हैं । सिर्फ हिंदूओं की भावना आहत करते हैं - आदि आरोप और प्रलाप करते रहेंगे । वे एक ऐसे बंद कमरे में रहते हैं जहाँ वे खुद को देखते हैं और सिर्फ अपनी आवाज सुनते हैं ।
मेरा स्पष्ट मानना है कि फिल्म का विषय कुछ हो , विरोध का मुद्दा कुछ भी हो - सेक्स , हिंसा, भाषा आदि , किसी भी फिल्म पर बैन नहीं लगना चाहिए । सेंसर बोर्ड को बैन करने का अधिकार नहीं होना चाहिए । विरोधियों को शांतिपूर्ण विरोध करने , फिल्म के खिलाफ लिखने , न देखने की अपील जारी करने आदि का हक है । लेकिन विरोध के नाम पर सिनेमाघरों में तोड़फोड़ , सिनेमा देखने जाने वालों को धमकाना , फिल्म निर्माता और अदाकारों को धमकाना आदि किसी भी किमत पर स्वीकार नहीं की जानी चाहिए । और ऐसे त्त्वों से सकख्ती से निपटा जाना चाहिए । चाहे वो कोई हों - शिवसेना हो , करणी सेना हो , मूल्ले हों , बजरंग दल हों ।
फिल्म किसी भी अन्य कला माध्यम की तरह अबाध सर्जनात्मक स्वतंत्रता की माँग करता है । आदर्श स्थिति मे्ं उसे दर्शक के टेस्ट और व्यवसायिक दवाब से भी मुक्त होना चाहिए । इसलिए सेंसर बोर्ड और अन्य व्यक्ति या संगठन जिनका इस कला माध्यम से कोई सरोकार नहीं है , उन्हें फिल्म को बाधित करने का कोई अधिकार नहीं है । किसी को फिल्म का विषय , ट्रीटमेंट पसंद नहीं है , मत देखिए । सिंपल !
फिल्म "लिपिस्टिक अंडर माई बूर्का " पर सेंसर और फतवे के खिलाफ प्रतिक्रिया !

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

संवाद में संवेदनशीलता की आवश्यकता

कई बार मुझे लगता है कि सोशल मीडिया में संवाद करने की सहूलियत चाहे जितनी दी हो , लोग संवाद करने की कला यहाँ पर भूलते जा रहे हैं या जानबूझ कर अनदेखा करते हैं ।
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि संवाद दोतरफा प्रक्रिया है । इसमें दोनों पक्षों को सक्रिय भाग लेना होता है और अपेक्षित संवेदनशीलता दिखानी पड़ती है । वरना या तो संवाद सूत्र टूट जाता है या झगड़ा होता है ।
सोशल मीडिया पर अधिकांश संवाद इसी लिए थोड़ी देर बाद अभद्र और अशालीन हो जाता है ।
वर्तमान विवाद - जहाँ एक शहीद सैनिक की पूत्री ने संदेश लगाया - पाकिस्तान डिड नॉट किल माय फादर , वार डिड ! यह एक बेहद मार्मिक अपील है । युद्ध में जिसने अपना पिता गवाँया हो , उनके लिए यह एक उच्च आदर्श है । वरना बदले की भावना से वशीभूत होना सामान्य प्रतिक्रिया होती । इसमें उनका अपमान करने , धमकियाँ देने आदि वाली कोई बात नहीं है । यह पाकिस्तान का समर्थन नहीं , युद्ध की निस्सारता /विभीषिका को दर्शाना है । इसे समझ कर प्रतिक्रिया देने के बजाए उन्हें ट्रॉल करना निंदनीय है ।
दूसरे विरेंद्र सहवाग का जवाब इतना आपत्तिजनक नहीं है कि उन्हें उल्टा ट्रॉल किया जाए । हालाँकि वैसा जवाब समझ कर संवाद स्थापित करने के बजाए विरोधी को चित करने के इरादे से दिया जाता है । व्यवहार में भौगेलिक सीमाएँ , पाकिस्तान से कटू संबंध , युद्ध सच्चाई हैं । जरुरी नहीं कि हर कोई उच्च आदर्श स्थिति से मामले को देखे । पाकिस्तान को कटघरे में खड़ा करना , दोष देना कतई गलत नहीं है ।
आभासी दुनिया हो असली दुनिया - संवाद में सामने वाले का मंतव्य समझने के बाद ही जवाब देना चाहिए , वरना संवाद नहीं होता , झगड़ा होता है ।

रविवार, 26 फ़रवरी 2017

भाजपा से संबद्ध लोगों की देश विरोधी जासूसी में संलिपत्ता

पिछले दिनों भाजपा से संबद्ध व्यक्ति का नाम भारत के खिलाफ जासूसी में आया था । वे सभी हिंदू नाम वाले थे । इस बात का जिक्र इसलिए जरुरी है कि मुसलमानों की देशभक्ति को हमेशा संदेह की दृष्टि से देखा जाता है ।आप पहले भारतीय हैं या मुसलमान - का सवाल इसी बदनियत संदेह की उपज है । मान लिया जाता है कि कोई हिंदू है तो सहज ही देशभक्त होगा । कम से कम उनसे कोई सबूत नहीं माँगता । यदि वह भाजपा और संघ से जुड़ा है तो उसे देशभक्ति का सर्टिफिकेट का बाँटने और देश के नाम पर गुंडागर्दी का लाइसेंस भी मिल जाता है । खासतौर से तब जब भाजपा सत्ता में हो ।
ऐसे में यह चिह्नित करना जरुरी है कि भाजपायी और हिंदू नाम वाले लोग भी देशविरोधी गतिविधियों में लिप्त पाये जाते रहे हैं और हिंदू होना या राष्ट्रवाद की राजनीति करना देशभक्ति की गारंटी नहीं है ।
यह भी नोट करने वाली बात है कि जहाँ भाजपा/संघ के लोग कश्मीर , बस्तर आदि का मामला उठाने और सरकारी विचार से अलग विचार रखने पर ही किसी को देशद्रोही घोषित किये जा रहे हैं , जबकि इनसे देश को सीधे कोई नुकसान नहीं है । बल्कि यह देश के लिए जरुरी है कि देश के नागरिकों की समस्या सुनी जाए और उसका समाधान किया जाए । यह देश औक सरकार के लिए जरुरी है । वरना जनता सवाल करेगी ही कि देश और सराकर के होने का मतलब क्या है ।
लेकिन देश की गोपनीय सुचनाएँ बेचना आदि सीधे सीधे देशद्रोह है जिनसे देश को खतरा है । उन्हीं गतिविधियों में भाजपा के लोग लिप्त पाये गये हैं । दिसचस्प है कि इसी समय उत्त प्रदेश में चुनाव चल रहे हैं । भाजपा खुल कर सांप्रदायिक ध्रुवाकरण का प्रयास कर रही है । बावजूद इसके कोई भी अन्य दल ने इसे मुद्दा बना कर भाजपा को घेरने की कोशिश नहीं की । न ही भाजपा और संघ के कुत्साप्रचार को उजागर किया ।यह एक रणनीतिक भूल है ।
यह मामला नोट करके रखा जाना चाहिए ताकि जब भाजपा और संघ किसी के मुस्लिम होने या वामपंथी होने भर से देशद्रोहीहोने का तमगा बाँट रही हो , वहाँ उन्हें आईना दिखाया जा सके ।

शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

बहुजनों मतों का विभाजन और भाजपा के पक्ष में जाना बहुजनों के हित में नहीं है ।

भाजपा समर्थक और कुछ अन्य विश्लेषक मान रहे हैं कि उत्तर प्रदेश चुनाव में गैर जाटव दलित और गैर यादव पिछड़े भाजपा की ओर जा रहे हैं । चूँकि राज्य का न वोटर हूँ , न वहाँ रहा हूँ , इसलिए जमीन पर क्या स्थिति है , मैंं नहीं कह सकता हूँ ।
लेकिन यदि यह सच है तो यह बहुजनों के लिए बुरा है । इसके दुष्परिणाम लंबे समय तक रहेंगे । और यहाँ मुझे राजनीति से ज्यादा समाज की फिक्र है । मैं बहुजनों की एकता का समर्थक हूँ । दलित और पिछड़े की बायनरी और उनका टकराव सिर्फ सवर्णों के हित में है , बहुजनों के हित में नहीं ।
यहाँ तो दलितों में जाटव और गैर जाटव , पिछड़ों में यादव और गैर यादव का द्वंद रचा जा रहा है ।
सामाजिक न्याय का दावा करने वाली कोई भी पार्टी एक जाति तक सीमित नहीं रह सकती । यदि रहती है और पुरे बहुजन समाज को जोड़ने का प्रयास नहीं करती है तो फिर वहाँ सामाजिक न्याय नहीं है । कोई पार्टी किसी समुदाय /जाति को बँधूआ मजदूर के तर्ज पर बँधूआ वोटर मान कर नहीं चल सकती । किसी पार्टी से नाराजगी/शिकायत हो सकती है , लेकिन दूसरे दल में जाने से पहले अपने दल से बारगेन तो ढंग से करलें।दूसरी पार्टी में जाना है तो उन्हीं से बारगेन करें । क्या कर सकते हैं हमारे व्यापक सामाजिक हित में ?
वैसे सामाजिक न्याय के मसले पर मैं बसपा को बेहतर पाता हूँ । मायावती और बसपा से शिकायतों हो सकती हैं , लेकिन इस चुनाव में दलितों और पिछड़ों के लिए वह बेहतर विकल्प है ।
भाजपा सिर्फ मुसलमानों का डर दिखा कर और जाटव-गैर जाटव , यादव और गैर यादव का द्वंद रच कर बहुजनों के बड़े तबके का वोट लेने में कामयाब होती है तो कहना पड़ेगा कि बहुजनों ने अपने हित को प्राथमिकता नहीं दी ।
पहले भी कहा है , भाजपा और संघ का कथित हिंदू राष्ट्र मुसलमानों से ज्यादा बहुजनों के

लिए खतरनाक है । जहाँ सारे खटकरम बहुजनों के जिम्मे और सारी मलाई सवर्ण चाभेंगे।
बहुजनों मतों का विभाजन और भाजपा के पक्ष में जाना बहुजनों के हित में नहीं है ।

उत्तर प्रदेश चुनाव में मुसलमान वोट

आजम खान का यह बयान दुर्भाग्यपूर्ण है कि बसपा को वोट न दें , भले ही भाजपा को दे दें ।नोता लोग चुनाव के मौसम में विपक्षी पार्टी और नेताओं के खिलाफ बयान देते ही हैं । । अपने दल को वोट देने और विरोधी को न देने की अपील करते ही हैं । लेकिन यहाँ सत्ताधारी दल का एक कद्दावर नेता अपने दल को वोट देने के बजाए एक विपक्षी पार्टी को दूसरी विपक्षी पार्टी के विरोध में मत देने के लिए कह रहा है ।
सवाल है कि आजम खान द्वारा भाजपा को बसपा पर वरियता देने का कारण क्या है ? गौरतलब है कि बसपा ने करीब एक चौथाई टिकट मुसलमानों को दिया है , और भाजपा ने एक भी नहीं । भाजपा नेतृत्व खुलकर ध्रुवीकरण का प्रयास कर रहे हैं । भाजपा नेतृत्व की शिकायत रही है कि मुसलमान उनको वोट नहीं देता है । उनकी कथनी और करनी को देखते हुए वे उम्मीद भी कैसे कर सकते हैं ? वैसे उनकी नीति मुसलमानों को साथ लेने के बजाए उनका डर दिखाकर हिंदू वोट को अपने पालें में करना रहता है । सिर्फ चुनाव ते समय, जीतने के बाद नेतृत्व और व्यवस्था सवर्ण या सवर्ण हित साधने में उपयोगी लोगों के हाथ में रहता है ।
सपा सरकार दंगों को नियंत्रित करने और सांप्रदायिक तनाव को भी प्रभावी तरीके से रोकने में विफल रही । नागरिकों की सुरक्षा और शांति व्यवस्था बनाए रखना राज्य सरकार का प्राथमिक काम है । नागरिकों में मुसलमान भी शामिल हैं । दंगा रोकना मुसलमानों पर अहसान नहीं , सरकार की प्रमुख जिम्मेदारी है । यदि सराकर इतना भी नहीं कर सकती तो उसे सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है । सपा - कारसेवकों पर गोली चला दी - को कब तक भूनाती रहेगी ?
हर बार की बात नहीं कह सकता । लेकिन इस बार उत्तर प्रदेश चुनाव में मुसलमानों के लिए बेहतर विकल्प बसपा है । भाजपा तो हरगीज नहीं ।



शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

रामजस कॉलेज डीयू में विद्यार्थी परिषद की गुंडागर्दी पर प्रतिक्रिया

यह कोई नयी बात नहीं है । संघ और उसके अनुषंगी संगठन हमेशा से एक ऐसे अबौद्धिक समाज के निर्माण के लिए प्रयासरत हैं जहाँ आप सवाल नहीं कर सकते , बस आज्ञा पालन कर सकते हैं । जहाँ इतिहास के बजाए पुराण पढ़ाए जाएँगें । जहाँ विज्ञान वहीं तक मान्य है , जहाँ तक वह जीवन को सुगम बनाए और आस्था को पुष्ट करे । आस्था को चुनौती देती वैज्ञानिक चेतना उन्हें पसंद नहीं है ।
जब भी भाजपा - जो संघ का ही अनुषंगी संगठन है , सत्ता में होती हैं , उनके प्रयास तेज हो जाते हैं । विश्वविद्यालयों में संघ का एजेंडा विद्यार्थी परिषद लागू करती है । जिनका नारा - भले ही ज्ञान, शील और एकता हो, हरकतें ठीक विपरीत हैं ।
ज्ञान के नाम पर उनके पास गढ़ी हुई कहानियाँ है जो तर्क और तथ्य की कसौटी पर खड़ी ही नहीं उतरती । वे राष्ट्रवाद और परंपरा के नाम पर सबपर यही थोपना चाहते हैं । वे वाद विवाद संवाद के बजाए डंडे का सहारा लेते हैं । ज्ञान को कौन पूछता है ?
शील ऐसा है कि हर स्त्री जो उनसे सहमत नहीं है , रंडी है । उनके पास तर्क नहीं बस गाली है ।
एकता ऐसी कि उनके राष्ट्र में न मुसलमान हैं , न इसाई , न दलित । हैं तो दोयम दर्जे की नियति के लिए अभिशप्त ।
असहमति , मतभेद किसी का भी लोकतांत्रिक अधिकार है । लेकिन विचार/लेख/किताब का जवाब विचार/लेख/किताब से देने के बजाए सत्ता /बल के दम पर आवाज कुचलना सीधे सीधे आतंकवाद है । ये आतंकवादी है । भले ही प्राइमरी लेवल के - बम नहीं फोड़ रहे , विरोधियों की हत्या नहीं कर रहे , लेकिन डंडे, पत्थर , कानून का इस्तेमाल बखूबी कर रहे हैं । वे सत्ता , संस्थान आदि हर जगह पैठ बना चुके हैं या शिद्दत से लगे हुए हैं ।
जब आवाज को कुचलने के लिए आतंक का सहारा लिया जा रहा हो , तो उस समय बोलना सबसे जरुरी हो जाता है । बोलिए , लिखिए , लड़िए ! अगली बार जब वे मारने आय़ें तो पलटवार जरुर होना चाहिए । आत्मरक्षा का अधिकार कानून भी दोता है और समाज भी । ,

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

यौन शोषण के आरोप मे फँसे ब्रजेश पांडे के बहाने भाई पत्रकार रवीश कुमार पर हमले पर टिप्पणी

हाल में बिहार में काँग्रेस के नेता ब्रजेश पांडेय पर एक दलित युवती ने बलात्कार और सेक्स रैकेट चलाने के आरोप लगाया।
दिलचस्प था कि इस खबर में अपराध के आरोपी से ज्यादा चर्चा इस बात की थी कि वे पत्रकार रवीश कुमार के भाई हैं । और इस बात को लेकर रवीश कुमार पर निशाना साधा जा रहा है । उन्हें इस पर प्राइम टाइम करने की चुनौती उछाली जा रही है । चूँकि पीड़िता दलित है , इसलिए रवीश - जो कई दलित एक्टिविस्टों के नजर में प्रच्छन ब्राह्मणवादी हैं - भी उन्हें कटघरे में खड़ा कर रहे हैं । वहीं संघ/भाजपा समर्थक जो रवीश की पत्रकारिता के निशाने पर रहे हैं अचानक से दलित हितैषी होकर रवीश पर पिल पड़े हैं ।
मेरा मानना है कि इस घटना में जिम्मेदारी आरोपी की है । रवीश कुमार सिर्फ उनके भाई होने के कारण दोषी नहीं हो जाते हैं । हाँ , लेकिन यह जाँच की समान्य प्रक्रिया है कि आरोपी /अपराधी के दोस्तों, निकट संबंधियों की सहभागिता की संभावना देखते हुए उन्हें भी जाँच के दायरे में लिया जाता है । यह जाँच पुलिस को करना चाहिए ।
दूसरी बात यह कि रवीश कुमार को इस पर प्राइम टाइम करने की चुनैती देना सही नहीं है । सीधी सी बात है कि पत्रकारिता निष्पक्षता की माँग करती है , जहाँ भी एक पक्ष से किसी तरह का जुड़ाव है, वहाँ निर्णायक की भूमिका न लेना ही सही है । जज भी इस मुद्दे पर केस की सुनवाई करने से इंकार करते हैं ।हाँ , यह माँग उचित है कि रवीश अपने प्रभाव का उपयोग आरोपी को बचाने में न करें ।
तीसरी बात यह है कि किसी सवर्ण को सिर्फ उसकी जातिगत पहचान में रिड्यूस करना सही नहीं है , जाति वाले एँगल को भी विश्लेषण में स्थान देने के बावजूद । रवीश कुमार - जिन्होंने जनपक्षधर पत्रकारिता में एक पहचान बनाई है - का समग्रता में ही मूल्यांकन किया जाना चाहिए । वे आलोचना से परे नहीं हैं । लेकिन यूंँ इस पर प्राइम टाइम क्यों किया , उस पर क्यों नहीं किया - कहकर उनकी पत्रकारिता पर सवाल उठाना उचित नहीं ।
दलित एक्टिविस्टों के लिए रवीश कुमार पर हमले से ज्यादा जरुरी है कि पीड़िता को न्याय मिले और दोषियों पर कार्यवाई हो , भले रवीश कुमार इस पर सफाई /प्राइम टाइम करे , न करे ।
संघ और भाजपा समर्थकों का रवीश से खुन्नस समझना मुश्किल नहीं है । उन्हें न पीड़िता से मतलब है , न न्याय से । उन्हें बस काँग्रेस और रवीश पर हमले का मौका मिला है जिन्हें वे भूना रहे हैं । वे बिना मुद्दे के भी उनके पीछे पड़े रहते हैं और आगे भी उनसे बेहतर की उम्मीद नहीं है ।


मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

बहुजनों का मतदान शत प्रतिशत होना चाहिए ।

इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के अनुसार उत्तर प्रदेश में जारी चुनाव के दूसरे चरण में जहाँ दलित बहुल सीटों पर मतदान के प्रतिशत में बढ़ोतरी नोट की गयी है, वहीं पिछड़े बहुल सीटों पर प्रतिशत में गिरावट नोट की गयी है । हालाँकि सवर्ण बहुल सीटों पर भी मतदान के प्रतिशत में कमी आयी है , लेकिन में उनपर टिप्पणी नहीं करना चाहूँगा ।
मेरी चिंता का कारण है कि पिछड़े बहुल सीटों पर मतदान के प्रतिशत में कमी । समाज और सत्ता में पिछड़ों की भागिदारी कम है और वे उतने प्रभावशाली नहीं हैं ।तंत्र मे सवर्णों की घूसपैठ इतनी अधिक है कि वे अपनी ताकत दिखाने के लिए चुनाव के समय के मोहताज नहीं हैं । लेकिन बहुजनों के पास यह विकल्प नहीं है । बहुजनों के पास चुनाव ही वह समय है जब वे अपनी ताकत दिखा सकते हैं । दलितों में राजनीतिक चेतना , लड़ने की जिजीविषा पिछड़ों के मुकाबले अधिक है । मतदान के प्रतिशत से बात और पुष्ट होती है । पिछड़ों के उनसे सिखना चाहिए ।
मतदान में न केवल शत प्रतिशत वोटिंग सुनिश्चित होनी चाहिए , बल्कि उम्मीदवारों के पहुँचने से पहले खुद उनके पास जाना और पूछना चाहिए कि वे आपके लिए क्या कर सकते हैं । मेरा मतलब शराब या कुछ पैसे लेकर वोट बेचने से नहीं है , बल्कि यह है कि आपकी शिक्षा, व्यापार, खेती संबंधी दिक्कतों के लिए उनके पास क्या योजना है और वे किस हद तक आने वाले पाँच सालों में मदद के लिए तैयार रहेंगे ।
राजनीतिक दलों को यह स्पष्ट संदेश मिलना चाहिए कि वे पिछड़ों और उनके हितों की अनदेखी कर न सरकार बना सकते हैं और न चला सकते हैं ।
इसके लिए पहले कदम है कि वोट डालिए । इस चुनाव में और हर चुनाव में । अगर पिछड़े अपने वोट की ताकत नहीं दिखाएँगे तो हाशिए पर तो हैं हीं , एकदम से फेंका जाएँगे ।
#मेरे_बहुजन_मित्रों

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

ऐसे गढ़ा जाता है मेरिट का मिथ संस्थानों में जातिवाद


ऐसे गढ़ा जाता है मेरिट का मिथ संस्थानों में जातिवाद
संस्थानों में जातिवाद बड़े ही महीन ढंग से सुचारु रुप से चलता है ।
कैसे ? इसकी एक बानगी मौजूदा पोस्ट में दिखाने की कोशिश की गई है ।
पहले यह साफ कर दिया जाना चाहिए कि संस्थानों में हमेशा माहौल औपचारिक नहीं होता है और न ही काम तयशूदा नीतियों के हिसाब से होता है । बायपास करने के लिए लूपहोल का इस्तेमाल होता है ।
काम करते हुए एक सेमी फार्मल व्यवहार होता है सहकर्मियों और उच्च पदस्थ अधिकारियों के साथ भी । पर्सनल लाइजनिंग के नाम पर व्यक्तिगत संबंध पेशेवर संबंधों को प्रभावित करते हैं और कई बार तो उस पर हावी हो जाते हैं । पर्सनल लाइजनिंग में सामाजिक पृष्ठभूमि महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । इसमें जाति, लिंग , क्षेत्र , भाषा , वर्ग आदि सभी शामिल हैं ।
अब कोई मिश्रा उच्च पद पर आसीन हुए तो झाओं, शुक्लाओं , तिवारियों को मनचाही पोस्टिंग मिलनी शुरु हो जाती है । सुविधानुसार छूट्टियाँ मिलने लगती है । उन्हें बस अपनी इच्छा बतानी पड़ती है ।
यादवों, पासवानों आदि को फिर मनचाही पोस्टिंग के लिए फिर " थ्रू प्रॉपर चैनल " जाना पड़ता है और तब भी काम होने की कोई गारंटी नहीं है ।क्योंकि "संस्थान की आवश्यकता " सर्वोपरि है - कहकर कोई भी निर्णय लिया जा सकता है । कोई शिकायत भी नहीं हो सकता है , क्योंकि काम "नियमानुसार " हो रहा है ।
फिर यादवों और पासवानों को चून चून कर कठिन असाइनमेंट /दूर दराज की पोस्टिंग आदि दी जाएगी और खराब नतीजों के लिए सारा ठिकरा उनके सिर फोड़ा जाएगा और उन बाह्य कारकों का कोई संज्ञान नहीं लिया जाएगा जिस पर कर्मचारियों का कोई नियंत्रण नहीं है लेकिन जो नतीजों को प्रभावित करते हैं । झा और शुक्ला किसी आरामदेह जगह पर पोस्टिंग का मजा लेंगे और मूल्यांकन में अच्छे अंक भी मिश्रा की कृपा से पा लेंगे ।
कोई गलती होने पर जहाँ यादव और पासवान को मेमो मिलेगा, कार्यवाई होगी , वहीं झा और शुक्ला - बच्चों से गलतियाँ हो जाती हैं के नाम पर मिश्रा द्वारा न केवल बचा लिए जाएँगे, बल्कि उनकी गलती का रिकॉर्ड भी नहीं बनेगा ।
इस तरह वर्चस्वशाली समूह अपनी बिरादरी वालों के मेरिट ( ब्राह्मण , बनिये का दिमाग है ) और वंचित समूदायों के व्यक्ति की अक्षमता ( इन कोटे वालों को तो कुछ नहीं आता जाता, बस कोटे के दम पर आ जाते हैं ) का मिथ गढ़ता है ।
मेरे बहूजन मित्रों - इस व्यूह को समझें , सावधान रहें और यथाशक्ति प्रतिकार अवश्य करें । आपकी सहनशीलता आपकी कमजोरी मानी जाएगी । इसलिए पलटवार जरुर करें । हार जीत और सुकून से ज्यादा प्रतिकार मायने रखता है ।
#मेरे_बहुजन_मित्रों

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

दलों को चँदा दें !

इस पर बहुत चर्चा होती रही है कि चुनाव और दलों पर पूँजीपतियों की पकड़ है क्योंकि फंड का इंतजाम वही करते हैं । दलों को चुनाव लड़ने और संगठन के लिए पैसे तो चाहिए , लेकिन इसका इंतजाम कौन करे ।
किसी आम पार्टी कार्यकर्ता /समर्थक से बात कीजिए तो पता चलेगा कि वे पार्टी का काम करने के एवज में पैसे चाहते हैं, वोटर भी चुनाव के मौसम में कुछ खर्चा पानी , कुछ गिफ्ट चाहता है । किसी पार्टी या नेता के आह्वान पर रैली में शामिल होने के लिए भी वे भुगतान चाहते हैं । कम से कम - चाय, नाश्ता और आने जाने का खर्चा तो उन्हें जरुर चाहिए होता है ।
सवाल है ऐसे में दलों की निर्भरता पूँजीपतियों पर बढ़ेगी और सरकार बनने के बाद उनके दवाब में रहेगी ।
मेरी स्मृति में बिना गूगल किए सिर्फ एक पार्टी और नेता का ध्यान आता है जिन्होंने अपने वोटरों से वोट के साथ नोट भी माँगे । वह है - बसपा और काँशीराम ।
यह एक बढ़िया विचार था ।और इसे जोर पकड़ना चाहिए था । अफसोस ! फिलहाल इसे कोई भी पार्टी बढ़ावा नहीं दे रही है । खुद बसपा भी नहीं ।
कुछ लोग बड़ी रकमें दें इससे बेहतर है ज्यादा लोग थोड़ा थोड़ा योगदान करें । तभी सरकार पर पूँजीपतियों की पकड़ थोड़ी ढीली पड़ेगी ।
सरकार की आय का बड़ा श्रोत जनता द्वारा करों से कमाया जाता है चाहे वह प्रत्यक्ष हो या परोक्ष ! यदि जनता के पैसे से सरकार चल सकती है तो राजनीतिक दल भी चल सकते हैं ।
यदि आप किसी दल के समर्थक हैं , कार्यकर्ता हैं तो दलों से भूगतान की आशा करने के बजाए उन्हें चँदा दीजिए । भले ही राशि कितनी भी छोटी हो । यह दलों और लोकतंत्र को जनकेंद्रित बनाने में मदद करेगा ।
थोड़ा आदर्शवादी और अव्यवहारिक लग सकता है , पर है नहीं । आइडिया जोर पकड़ने की देर है ।

बुधवार, 15 फ़रवरी 2017

मायावती स्त्री विमर्श का हिस्सा क्यों नहीं है ?

मायावती स्त्री विमर्श का हिस्सा क्यों नहीं है ?
उत्तर प्रदेश में चुनाव चल रहे हैं । बसपा प्रमुख मायावती एक महिला है , साथ में दलित भी हैं, सत्ता की प्रमुख दावेदारों में से है । यह तय है कि बसपा स्वयं या गठबंधन कर सरकार बनाती है तो वह मुख्यमंत्री होंगी । सख्त प्रशासन के लिए भी जानी जाती हैं । हालाँकि उन पर भ्रष्टाचार का भी आरोप है ।
सवाल है कि स्त्री मुद्दों पर लिखने वाली महिलाएँ /पुरुष उनके समर्थन में क्यों नहीं हैं ।
मुझे याद आता है कि हाल में अमेरिका में चुनाव में हिलेरी क्लिंटन के न जीतने पर कई महिलाओं ने रोष जताया था । अफसोस जताया था कि ग्लास सीलिंग भेदी न गई और एक महिला दुनिया के सबसे ताकतवर देश की प्रमुख न बन पाई ।
याद आता है कि जब विदेशी मूल के मुद्दे पर सोनिया गाँधी भारत की प्रधानमंत्री न बन पाईँ तो अखबारों में सवर्ण महिलाओं ने लेख लिखे कि एक महिला भारत का प्रधानमंत्री नहीं बन सकी और रोष जताया ।
ममता बनर्जी , जयललिता आदि का जिक्र महिला नेता के रुप में होता है । गौरतलब है कि सभी सवर्ण हैं । उल्लेखित दोनों नेता ब्राह्मण हैं ।
स्पष्ट है कि मायावती की दलित पहचान हावी है उनके महिला होने पर । स्त्री के नाम पर सवर्ण महिलाएँ काबिज हैं सारे स्तरी विमर्श पर , संबंधित संस्थानों में , चर्चा/लेखन के स्पेस में , जिनमें एक बड़े राज्य की मुख्यमंत्री रह चुकी महिला तक को स्पेस नहीं मिलता है । वे अमेरिकी चुनाव लड़ रही महिला को समर्थन दे सकती हैं , विदेशी मूल की महिला को समर्थन दे सकती हैं , लेकिन अपने देश की सशक्त महिला जो नेता और प्रशासक के रुप मे अपना क्षमता साबित कर चुकी हैं को समर्थन देना तो दूर चर्चा तक नहीं करेंगी, क्योंकि वे दलित हैं
यह बार बार स्पष्ट होता रहा है कि भारत में स्त्री विमर्श एलिट, शहरी , धनाढ्य , सवर्ण महिलाओं तक सीमित हैं । सवर्ण महिलाएँ महिला मुद्दों के नाम पर सवर्ण वर्चस्व को संरक्षित करने का टूल हैं । वरना क्या कारण है कि मायावती जैसी महिला का महिला विमर्श में स्थान नहीं है , आम बहुजन महिला की बात क्या करें ?
स्त्री मुद्दों पर बात करते हुए बहुजन स्त्रियों का समावेश होना ही चाहिए ।



रविवार, 12 फ़रवरी 2017

उत्तर प्रदेश में इस बार बसपा को मौका देना चाहिए !

लोकतंत्र के वर्तमान स्वरुप में दल महत्वपूर्ण हैं । कोई भले ही किसी दल से बँधा न हो , उम्मीदवार को प्राथमिकता दे , लेकिन दल पर भी विचार करना जरुरी हो जाता है ।
यूपी चुनाव में मुख्य मुकाबला त्रिकोणीय है । एक तरफ सपा-काँग्रेस , दूसरी तरफ भाजपा और तीसरी तरफ बसपा ।
मेरे ख्याल से इस बार यूपी चुनाव में बसपा और मायावती बेहतर विकल्प है ।
सपा एक सत्ताधारी पार्टी होने के कारण बदलाव होना चाहिए । एक सांप्रदायिक दंगों /तनाव को नियंत्रित नहीं कर पाये । सिर्फ भाजपा और संघ को दोष दे कर अपनी जिम्मेदारी से बरी नहीं हुआ जा सकता है ।
दूसरे सामाजिक न्याय के नाम पर उनका रवैया ढूलमूल लगता है । प्रोमोशन में मिलने वाले आरक्षण को वापस लिया । तीसरे एक परिवार का इस कदर दबदबा कि दूसरे के लिए कोई जगह ही नहीं होना । जमीनी नेतृत्व तो इस तरह नहीं उभरता ।
2014 के लोकसभा में भाजपा को एक मौका दिये जाने के वे भी समर्थक थे जो भाजपा के कोर समर्थक नहीं थे और भाजपा को लेकर सशंकित रहते थे । मोदी ने अपने कारनामों से ऐसे लोगों को फिर से अपने लोगों से दूर कर लिया है । भाजपा को कम से कम इस बार संदेह लाभ नहीं दिया जा सकता है ।
बसपा एक तो राजनीति में दलित दावेदारी को पुख्ता करने के लिए जरुरी है । दूसरे सख्त प्रशासन के लिए भी मायावती जानी जाती हैं । मूर्तियाँ बनवाना मुझे कोई अपराध तब भी नहीं लगा था । घोटाले के आरोप से कोई दल और नेता अछूता नहीं है ।

बेहतर है इसबार मायावती को चुना जाए ।



सांस्कृतिक आदान प्रदान


वैलेंटाइन डे हो, जन्मदिन मनाने की रस्म हो , पोशाक का मामला हो, कथित संस्कृति रक्षक इसे भारतीय संस्कृति पर हमला बताते हैं और अपने विगत वैभव के लिए आठ आठ आँसू बहाते हैं ।
जब दो अलग संस्कृति मिलती हैं तो आदान प्रदान होता ही है । इसमें सत्ता भी एक भूमिका निभाती है । लेकिन एक पहलू यह भी है कि जब कोई चलन/परंपरा दूसरी संस्कृति के लोगों द्वारा अपनाया जाता है तो जरुर यह उनकी वह जरुरत को पूरा करता है जिसे उनकी अपनी संस्कृति ने पूरा नहीं किया ।
मसलन वैलेंटाइन डे को लीजिए । यह दो व्यस्क व्यक्तियों को प्रेम के इजहारके लिए मौके देता है । भारत में परंपरा से कोई ऐसा मौका कोई त्योहार अवसर नहीं होता है । होली के नाम पर कुछ छेड़छाड़, हँसी मजाक की छूट भले मिल जाती हो । सरस्वती पूजा को भले ही मिलने जुलने के लिए प्रेमियों द्वारा इस्तेमाल किया जाता हो , वह तो प्रेमियों का नहीं धार्मिक त्योहार है । कृपया अतीत के मदनोत्सव का उदाहरण न दें । कभी होता होगा , निकट अतीत में तो विलूप्त प्राय: ही था । इसलिए वैलेटाइन डे बजरंग दल , सेना आदि के विरोध के बाद भी फैलता रहा है ।
पारंपरिक रुप से भारत में देवी देवताओं के ही जन्मदिन मनाए जाते हैं । लेकिन अभी लगभग हर मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मदिन मनाया जाता है । क्योंकि यह एक व्यक्ति को केंद्र में रखकर मनाया जाना वाला उत्सव है । वह खुश हो जाता है कि परिवार और समाज के लिए उसकी जिंदगी की कोई अहमियत है और वे उसके होने से खुश हैं । इसलिए जन्मदिन मनाने की परंपरा ने भी जोड़ पकड़ा ।
पोशाक तो आजकी भागदौड़ की जिंदगी के हिसाब से बदलनी ही थी ।जिन्हें हम पश्चिमी पोशाक के नाम से जानते हैं, वे यूरोप की पारंपरिक पोशाक नहीं हो । अपना पारंपरिक पोशाक वे भी छोड़ चुके हैं या खास आयोजन तक सीमित हैं । जिंस सुविधाजनक होने के कारण लोकप्रिय है, पश्चिमी होने के कारण नहीं ।
इसलिए सांस्कृतिक आदान प्रदान को बाहूबल के प्रयोग से रोकने का प्रयास नहीं होना चाहिए ।

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2017

चुनाव में उम्मीदवार को महत्व दें ।


मैं और मेरे जैसे लोग जो राजनीतिक रुप से सचेत हैं , लेकिन किसी पार्टी से खुद को बँधा नहीं पाते और न हीं मानते हैं . उनके लिए चुनाव का समय मुश्किल होता है । क्योंकि चुनाव के समय एक को तो चूनना ही पड़ता है । लेकिन फिर भी मैं किसी एक पार्टी के लहर में किसी को भी जीता देने के पक्ष में नहीं हूँ , पार्टियों का एजेंडा और कोशिश ये हो सकती है , लेकिन जनता के लिए नहीं ।
पार्टी के साथ उम्मीदवार भी मायने रखता है । जिस भी जगह पर आपराधिक - कोर्ट के मुकाबले वहाँ की जनता बेहतर जज होती है - उम्मीदवार हैं , उसे हराइए ।
जो भी उम्मीदवार जनता के लिए सहज उपलब्ध रहता है , जनता के मुद्दे उठाता है , दंगों/तनाव के समय निष्पक्ष रहता है और सांप्रदायिक सौहार्द्य के लिए काम करता है, उसे जिताइए ।
उम्मीदवारों से /उसके समर्थकों और प्रचारकों से हिसाब माँगिए । पार्टी से भी ।
किसी भी पार्टी के समर्थक हों , पार्टी के लिए किसी सामाजिक रुप से हानिकारक व्यक्ति को मत जिताइए !

राजस्थान सरकार द्वारा हल्दी घाटी के नतीजे बदलने पर प्रतिक्रिया


खबर है कि राजस्थान सरकार ने हल्दीघाटी का नतीजा ही बदल दिया । तथ्य में ही फेरबदल कर दिया कि महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी का युद्ध जीता था । इतिहास या किसी भी अन्य विषय़ में बदलाव संभव है । लेकिन तभी जब नए तथ्य, नए विश्लेषण सामने आए । इस तरह नहीं कि एक छद्म राष्ट्रवाद का भ्रम कायम करने के लिए इतिहास के तथ्य को मनमाने तरीके से बदल दिया जाए ।
जब ज्ञान पर कुछ जातियों /समुदायों का कब्जा था , ज्ञान का संचरण बहुत ही धीमी गति से होता था , तब इस तरह की कारस्तानियाँ भले ही चल जाती हों , लेकिन आज के दौर में यह संभव नहीं है ।
ज्ञान/सुचनाएँ इतनी जगह , इतने रुपों में संकलित है कि जरा सी छानबीन पर सच उजागर हो जाएगा ।झूठ क्रॉस चेकिंग में टीक भी नहीं पाएगा ।
इतिहास कोई परिकथा नहीं है जहाँ सब अच्छा ही अच्छा होगा । जीत के साथ हार भी इतिहास का हिस्सा है । जरुरत है कि सच को स्वीकार किया जाए ।
आधुनिक काल में याद रखना चाहिए कि महाराणा प्रताप जितने अपने थे, उतने ही अपने अकबर भी थे और हैं । बाबर को आक्रमणकारी कहना तो तथ्यसम्मत कहा जा सकता है , लेकिन अकबर को नहीं । उस समय न राष्ट्र की वैसी अधारणा थी और न ही सीमा । जो इस संघर्ष को हिंदू मुसलमान के चश्मे से देखते हैं , उन्हें याद रखना चाहिए कि मुगल सल्तनत का मुख्य विरोधी तुर्क अफगान शासक वंश था । मुगलों ने तुर्क अफगान को शासन से अपदस्थ किया था जो मुसलमान ही थे ।
संघ कबीला पहले ही ऐसी कोशिश करता रहा है । संघ संचालित विद्यालयों में जो पुरक किताबें पढ़ाई जाती हैं , उसमें इसी तरह के गप्प - जिसका तथ्य और तर्क से कोई वास्ता नहीं है - भरे पड़े हैं । सत्ता हाथ में आते ही इतिहास के नाम पर वही पढ़ाना चाहते हैं ।
इतिहास एक गंभीर विषय है जो अध्ययन और अन्वेषण की माँग करता है । इसे राजनेताओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है । जिन्हें वर्तमान इतिहास लेखन से समस्या है , उन्हें भी तथ्य और तर्क जुटाने होंगे , विश्लेषण में स्थापनाएँ प्रतिपादित करनी होंगी, आलोचनाओं /विवेचनाओं की कसौटी पर खरा उतरना होगा, तभी कोई बदलाव उचित कहलाएगा । इस तरह मनमाने ढंग से नहीं ।
राजस्थान सरकार द्वारा हल्दी घाटी के नतीजे बदलने पर प्रतिक्रिया

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

मोदी का आगामी संभावित ग्रैंड शो !


बड़ा सा मंच ! ढेर सारी लाइटें ।हजारों की भीड़ !मंच पर मोदी भाषण के समापन की ओर
- अपने कोट को चूटकी से खिंच कर दिखाते हुए
- यह मेरा सूट देखो !
शोर उठा - मोदी मोदी !
पाँव उठाकर अपना जूता दिखाते हुए
-यह मेरा बूट देखो !
शोर उठा मोदी मोदी !
अपने बालों में उँगलियाँ फिराते हुए
- ये मेरे बाल देखो
मोदी मोदी
- स्टेज पर चहलकदमी करते हुए
- ये मेरी चाल देखो
मोदी मोदी
दाँत चियारते हुए
- ये मेरा स्माइल देखो
मोदी मोदी
हनी सिंह की मुद्रा बनाते हुए
ये मेरा स्टाइल देखो
मोदी मोदी
ठूमका लगाते हुए
- ये मेरा नाच देखो !
मोदी मोदी
गले पर हाथ फिराते हुए
- ये मेरी आवाज देखो
मोदी मोदी
डेस्क पर मुक्का मारते हुए
ये मेरा पंच देखो
मोदी मोदी
दोनों हाथ फैलाते हुए
ये मेरा मंच देखो !
मोदी मोदी
मित्रों ! देश को पहली बार मेरे जैसा पीएम मिला है !
और ये देशद्रोही , मुझे मसखरा कहते हैं । मैं मसखरा हूँ क्या मित्रों !?
मोदी मोदी !
मोदी का आगामी संभावित ग्रैंड शो !

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सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

सवर्ण वोट और बसपा एवं अन्य बहुजन दल

मायावती ने गरीब सवर्णों को भी आरक्षण देने का वादा किया है । इससे पहले भी मायावती ने बहुजन के बजाए सर्वजन का नारा दिया है । और ब्राहम्णों को उनकी आबादी की तुलना में बहुत ज्यादा टिकट दिया है ।
बहुजनों के साथ दिक्कत है कि वे सवर्णों की स्वीकृति के लिए बहुत लालायित रहते हैं । हाल में सपा ने प्रोमोशन - जो पिछड़ों की पार्टी मानी जाती है -में आरक्षण का विरोध किया । नीतीश कुमार ने सवर्ण आयोग बनाया । इसके बाद भी सवर्ण कभी इन पार्टियों के वफादार वोटर नहीं रहेे । मजबूरी में वोट भले कर दें ।
इस मामले में भाजपा ज्यादा साफ है । वे मुस्लिम को अपना वोट बैंक नहीं मानते तो उन्हें लुभाने , साथ जोड़ने के लिए कोई खास प्रयास नहीं करते हैं । देख लीजिए - यूपी में एक भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया ।
यदि वे लगभग 25 % मुसलमानों को दरकिनार कर बहुमत की सरकार बना सकते हैं , तो 15 % सवर्णों को दरकिनार कर भी सोशल इंजीनियरिंग के समर्थक दल बहुमत ला सकते हैं । ऐसे में सवर्णों को खुश करने के लिए अपने कोर वोटर को नाराज करना, उपेक्षा करना उचित नहीं ।
उन लोगों को खुश करने का कोई मतलब नहीं है जिसे हमारे होने से ही एतराज है ।
सामाजिक रुप से समरसता का हिमायती हूँ । लेकिन चुनाव की रणनीति के हिसाब से बसपा, जद यू आदि को सवर्ण वोटों का मोह छोड़ देना ही उचित है ।

अपर्णा बिष्ट यादव के बयान पर प्रतिक्रिया

सपा नेता और मुलायम परिवार की सदस्य अपर्णा बिष्ट यादव का कहना है कि आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए । या तो वे नासमझी की शिकार हैं या रणनीतिक रुप से सवर्ण को लुभाने का प्रयास कर रही हैं । यहाँ गौरतलब है कि वे खुद सवर्ण हैं ।
उनके बयान से ज्यादा खेदजनक है कि अभी तक सपा की ओर सो खंडन में कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है । उल्टे सपा समर्थक बचाव करते देखे जा रहे हैं । मेरा मानना है कि सपा और उसके समर्थकों की जिम्मेदारी है कि वे स्थिति और अपना स्टैंड स्पष्ट करें । अगर वे अपने कोर वोटर की कीमत पर दूसरों को जोड़ना चाहते हैं तो उनकी रणनीतिक समझ में खोट है ।
वैसे भी , अखिलेश पर संघ /भाजपा से सहानुभूति रखने का आरोप लगता रहा है । वे दंगों पर भी काबू करने में नाकामयाब रहे और संघ /भाजपा को खाद पानी मुहैय्या कराते रहे ।प्रमोशन में आरक्षण पर भी इन्होंने धोखा दिया । बेहतर होगा अखिलेश अपने एजेंडे पर चलें , संघ के नहीं । वरना लोग सीधे संघ और भाजपा को चुनेंगे , सपा को नहीं ।
आर्थिक रुप से आरक्षण लागू करने का मतलब होगा बहुजनों के लिए आरक्षण का खात्मा और सवर्णों के लिए 100 % आरक्षण ! बहुत से बहुजन ज्यादातर पढ़े लिखे पिछड़े सवर्णों के इस मिथ्या प्रचार में फँस जाते हैं कि आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए । आरक्षण गरीबी हटाओ कार्यक्रम नहीं है , प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का टूल है ।
गरीबों के लिए मनरेगा है , जनवितरण प्रणाली है , आदि ।
लिखकर , बोलकर , धरना प्रदर्शन द्वारा ऐसे हर बयान का विरोध होना चाहिए । ताकि नेता लोग ऐसा करने , बोलने के पहले सोचने से भी डरे !

रविवार, 5 फ़रवरी 2017

निवेदिती मेमन पर एफआईआऱ

जोधपुर विश्वविद्यालय ने प्रोफेसर निवेदिता मेनन पर राष्टेरविरोधी बयान देवे के लिए एफआईआऱ करवाया है । उनपर आरोप है कि उन्होंने विवादित बयान दिया है । कहा है कि - कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नहीं है । और सेना में लोग नौकरी करते हैं देशसेवा नहीं ।
पहले इस तरह के आरोप कोई सेना , कोई महासभा आदि करते थे जिनका अध्ययन, शोध आदि से कोई संबंध नहीं होता था । लेकिन इन दिनों खुद विश्विद्यालय ही इस तरह ज्ञानविरोधी और विचार विमर्श विरोधी माहौल बनाने का काम करही है ।
भाजपा सरकार चुन चुन कर अपने लोगों को विश्विविद्यालयों में बैठा रही है । अपनो लोगों को सभी पुरस्कऋत करते हैं । लेकिन ऐसे लोग तो बैठाएँ जो विपक्ष को सम्मान देना चाहें , न कि सत्ता के दम पर आवाज का गला घोंटें ।
कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नहीं है , यह एक तथ्य है । इस तथ्य को विवादित और देशद्रोह क्यों माना जाए ? यदि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग हैं तो क्यों धारा 370 है ? क्यों वहाँ सेना तैनात है ? क्यों वहाँ अलग संविधान और झंडा है ? क्यों वहाँ दोहरी नागरिकता है जबकि अन्य राज्यों मसलन बिहार में ऐसा नहीं है ?क्या भारत सरकार ने हाल में स्थीति परिवर्तन के लिए कोई कार्यवाई की है ? ऐसा होना चाहिए या नहीं यह एक अलग मुद्दा है ।
फिर विचार विमर्श में पुलिस का क्या काम ? लेख, आर्टिकल, किताब आदि का विरोध लिख कर ही हो सकता है, पुलिस कोर्ट कचहरी से नहीं । यह एक गलत रवैया जोर पकड़ता जा रहा है जिसका विरोध होना चाहिए ।

उत्तराखंड में लोकतंत्र का नया प्रयोग

मेरा मानना है कि लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब राजनीति दल केंद्रित न होकर जन केद्रित होंगी । लेकिन दलीय लोकतंत्र में पार्टियाँ चुनाव लड़ती हैं । नेता टिकट और सपोर्ट के लिए दलों पर निर्भर करते हैं और चंदे के लिए या तो स्वयं का पैसा निवेश करते हैं या धनपतियों पर निर्भर करते हैं । ऐसे में चुने जाने के बाद उनकी निष्ठा धन बल और बाहूबल प्रदान करने वालों के प्रति हो जाती है ।या अपना निवेश निकालने पर । वोट देने वाली जनता दरकिनार कर दी जाती है ।
ऐसे में उत्तराखंड से एक अच्छी खबर आई है । मोरी में लोगों ने अपना उम्मीदवार उतारा है । 26 लोगों के पैनल ने संभावित उम्मीदवारों के बीच दुर्गेश्वर लाल - जो साधारण नौकरीपेशा हैं और किसी धनबल और बाहूबल से मरहूम हैं - को अपना उम्मीदवार चुना है । उनके मुकाबले भाजपा, कँग्रेस और बसपा के उम्मीदवार हैं जिनमें दो विधायक भी रह चुके हैं ।
यह एक सराहनीय प्रयास है । और ऐसे प्रयोग देश भर में दोहराए जाने चाहिए । यह प्रयोग किस हद तक सफल होगा , यह कई बात पर निर्भर करता है । लेकिन इस प्रयोग को सफल करने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए । भारतीय लोकतंत्र को जवाबदेह और जनकेंद्रित करने , धनबल और बाहुबल को मात देने का यह एक रास्ता है ।

मोदी के मन की बात 1

आह ! कितना भाषण देना पड़ता है ! थक गया हूँ भाषण देते हुए ! बहुत दिन हुए कहीं विदेश घूमने नहीं गया । काम में संतुलन रहना चाहिए । घूमते घूमते थकने पर भाषण देना शुरु कर देना .चाहिए । भाषण देते देते थक जाने पर घूमने निकल जाना चाहिए ।
सोचता हूँ मकाऊ चला जाऊँ । विदेश नीति के हिसाब से कोई दमदार देश नहीं है । नहीं लेकिन बढ़या टूरिस्ट स्पॉट है । विदेश मंत्रालय को निर्देश दे देता हूँ , कोई न कोई मौका बहाना ढूँढ़ ही लेगा । उन्हें ढ़ंग से काम करना है तो मेरे लिए इतना तो करना पड़ेगा ।
अब चलूँ , दो चार ट्विट करता हूँ !
मोदी के मन की बात !

शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

दहेज पर लेख पर विवाद

टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर की हेडलाइन है - Ugly Bride reeason for dowry : Maha Text Book . लाइन दी गई है कि - If a girl is ugly and handicapped , it becomes very difficult for her to get married . To marry such girls bridegroom and his family demand dowry .
हालाँकि कोई कमेंट करने से पहले में पूरा लेख पढ़ना पसंद करता , फिर कोई राय कायम करता कि इससे क्या मतलब निकलता है । हालाँकि जो लाइन दी गई है उससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि कुरुपता या दिव्यांगता को दहेज का कारण बताया जा रहा है ,बल्कि यह है कि कुरुपता और दिव्यांगता दहेज समस्या को और बढ़ाती है । यह सच है कि दहेज की रकम कई फैक्टरों पर निर्भर करता है और लड़की की सुंदरता इसमें मेजर फैक्टर होता है ।
लड़की वाले तक कहते पाए जाते हैं कि हमारी लड़की खुबसूरत है तो दहेज क्यों देंगे या लड़की इतनी सुंदर है तो किसी दुकानदार /गैरेज वाले को नहीं ब्याहेंगे ।
सवाल है कि कड़वे सच से छात्रों को क्यों नहीं परिचय कराया जाए ? क्यों सामाजिक समस्याओं पर लेख देते समय शुगर कोटेड वर्जन दिया जाए ? और यह तथ्य बताना इसका समर्थन कैसे हो गया ?
अफसोस है कि इन दिनों कई बार भाषा पर फोकस इस कदर हो रहा है कि असली मुद्दे ही गायब हो जाते हैं । संवाद में मंतव्य समझा जाता है । बात पकड़ कर विवाद खड़ा करना मकसद हो तो बात अलग है , लेकिन तब संवाद नहीं होता ।

नागालैंड में अर्बन लोकल बॉडी में महिला आरक्षण को समर्थन

कोहिमा नागालैंड में अर्बन लोकल बॉडी में 33 % आरक्षण महिलाओं के दिये जाने के विरोध में नागालैंड में हिंसा भड़की हुई है ।
खबर पढ़कर थोड़ी हैरानी हुई । इसलिए कि पूर्वोत्तर और यहाँ के आदिवासी समाज मातृप्रधान माने जाते हैं । हिंदी बेल्ट के मुकाबले यहाँ महिलाओं को अधिक स्वतंत्रता मिली हुई है । ऐसे में महिलाओं के आरक्षण के खिलाफ हिंसा समझ में नहीं आया । अगर पूर्वोत्तर के मातृप्रधान क्षेत्र का दावा सही है तो बिना आरक्षण के ही महिलाओं का प्रयाप्त प्रतिनिधित्व होना चाहिए । अगर नहीं है तो भूलसुधार के रुप में इसका स्वागत होना चाहिए ।
याद नहीं आता कि जब बिहार- जो हिंदी बेल्ट का हिस्सा है जो महिलाओं को आजादी न देने के लिए कुख्यात है - में नीतीश सरकार नें पंचायतों में 50 % महिला आरक्षण लागू किया तो उसके खिलाफ कोई हिंसक प्रदर्शन हुआ हो ।
यह भी नोट करने लायक बात है कि अभी तक फेसबुक पर नागालैंड के मामले में महिलाओं के समर्थन में कोई कैंपेन नहीं देख रहा हूँ । यही कुछ दिन पहले किसी संस्था द्वारा ब्रा शब्द पर सेंसर लगाने पर ब्रा पर थोक के भाव में पोस्ट देखने को मिले । यहाँ जब शासन में भागिदारी सरकार द्वारा दिए जाने और स्थानीय संगठनों द्वारा हिंसक विरोध हो रहा है इसका समर्थन तो दूर संज्ञान भी नहीं लिया जा रहा है । मेट्रो सवर्ण एलिट महिलाओं का नारीवाद सिर्फ उनके वर्ग तक सीमित है , उल्टी प्राथमिकताओं का शिकार है - ये बार बार साबित होता रहा है ।
जरुरी है कि नागालैंड में महिलाओं के आरक्षण को समर्थन दिया जाए ।

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

भावना आहत करने के नाम पर विमर्श पर रोक नहीं लगाया जा सकता है ।

बांग्लादेश में सबसे बड़े पुस्तक मेले के आयोजन के पहले पुलिस ने आयोजकों , लेखकों , प्रकाशकों के लिए चेतावनी जारी की है कि वे धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले किताबों की बिक्री न करें ।
यह हद दर्ज की बेवकुफाना चेतावनी है । यह बांग्लादेश के शैसन द्वारा कट्टरपंथियों के सामने घूटने टेकना है ।हाल के दिनों में बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के हौसले बढ़े हैं । उसी अनुपात में नास्तिक , वामपंथी , स्वतंत्र चिंतकों/ लेखकों /पत्रकारों पर हमले बढ़े हैं । यहाँ तक कि खुलेआम हत्याएँ की गई हैं ।
ऐसे में शासन की चेतावनी उन कट्टरपंथियों के लिए होनी चाहिए जो विमर्श नहीं कर सकते हैं और हर आलोचना विरोध को बंदूक और खून के दम पर कुचलना चाहते हैं । उन्हें चेतावनी दी जानी चाहिए कि कानून व्यवस्था हाथ में न लें और किताब/लेख का जवाब लिख कर दें , गोली से नहीं ।
भावना भड़काने का आरोप लगाकर चिंतन मनन विमर्श शोध पर विराम नहीं लगाया जा सकता है । बांग्लादेश को याद रखना चाहिए कि वह पाकिस्तान से अलग दूसरा पाकिस्तान बनने के लिए नहीं हुआ था ।

मेरे बहुजन मित्रों - सरकारी नौकरी सत्ता में घूसपैठ है

आरक्षण पर हमले तो होते ही रहे हैं । आगे भी होते रहेंगे । विरोध का एक आधार यह भी है कि आरक्षण द्वारा सभी को रोजगार नहीं दिया जा सकता है । और नौकरी की संख्या घटती ही जा रही है । विनिवेश के कारण कई सरकारी उपक्रम बंद हुए हैं । कई विभागों में तदर्थ भर्ती कर के काम चलाया जा रहा है ।
उपर्युक्त बात में दम है । लेकिन बहुजन मित्रों को याद रखना चाहिए कि आरक्षण सिर्फ नौकरी पाने के लिए नहीं है , शासन और सत्ता में भागिदारी है । सत्ता संस्थानों के द्वारा ऑपरेट करती है । इन संस्थाओं में बहुजनों का बहुमत होना ही चाहिए । पुलिस , लोक सेवा आयोग की नौकरियाँ , आदि द्वारा संस्थाओं में घूसपैठ संभव है ।
आजीविका व्यवसाय , उद्यम आदि द्वारा कमाया जा सकता है और इसका अपना महत्व है , लेकिन सत्ता में भागिदारी के लिए नेता बनने और चुनाव लड़ने के अलावा यही एक तरीका आम बहुजनों के लिए उपलब्ध है ।
इसलिए बहुजनों के लिए सरकारी नौकरी का अपना महत्व है । जहाँ आरक्षण नहीं है - सेना और न्यायालय आदि लेकिन सत्ता केंद्र हैं वहाँ आरक्षण लागू करवाने और बिना आरक्षण के भी घूसपैठ करने और बहुमत में आने का प्रयास जारी रहना चाहिए ।
#मेरे_बहुजन_मित्रों

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017

धर्म और उत्सव

सरस्वती पूजा हो , काली पूजा हो, दूर्गा पूजा हो , सभी में देखिएगा कि नाच गाना , अश्लील और फूहड़ गाने , पंडाल के पीछे शराब आदि चलता है । इन पर उँगली उठाइए तो मुसलमानों , इसाइयों , नास्तिकों आदि का हवाला देकर बचाव किया जाता है । भले ही नितांत धार्मिक हिंदू भी इन सबसे दूखी हो । वे बिगाड़ के डर से / धर्म विरोधी समझे जने के डर से चूप रहते हैं ।
समस्या की जड़ है कि समाज में शराब को शैतान का पेय मान लिया गया है । इसे चाय/कॉफी आदि की तरह सामान्य पेय माना ही नहीं जाता है । नाचना भी एक फूहड़ काम माना जाता है । इसलिए हिंंदी बेलंट में कोई नाच का आम जन में लोकप्रिय और स्वीकृत नृत्य स्वरुप नहीं मिलता है । लेकिन धार्मिक उत्सव के नाम पर छूट मिल जाती है । साल में एकाध बार ही तो पीता खाता है , हुड़दंग करता है - इस वजह से लोग आँखे मुँद लेते हैं ।
निदान ये है कि शराब /नृत्य को सहजता से स्वीकृत किया जाए । यह साल में एकाध बार होने वाला नहीं सप्ताहांत वाला कार्यक्रम होना चाहिए । इसके लिए महँगे बार या डिस्को की जरुरत नहीं होना चाहिए । लोग मैदानों में , घरों में मिले , नाचे गाएँ , मर्जी हो तो नियंत्रण में शराब भी पियें । नतीजा यह होगा कि धार्मिक उत्सवों की आढ़ लेना बंद कर देंगे और यह नियंत्रित भी रहेगा ।
नास्तिक होने के बावजूद धर्म /त्योहार मनाने की स्वतंत्रता का हिमायती हूँ । आलोचना गलत को इंगित करने के लिए है । वैसे धर्म /त्योहार आदि की सफाई/सुधार करने की जिम्मेदारी धार्मिकों की बनती है , नास्तिकों की नहीं ।
उत्सव को धर्म से अलग कीजिए । यह दोनों के लिए अच्छा है ।

तुष्टिकरण मुस्लिम बनाम हिंदू व अन्य

गौर कीजिए
- सरकारी स्कूलों /कॉलेजों में भी सरस्वती पूजा पूरे कर्मकांड के साथ मनाई जाती है ।
- विश्वकर्मा पूजा रेलवे और अन्य सार्वजनिक उपक्रमों में मनाई जाती है ।
- सरकारी बैंक की हर शाखा में लक्ष्मी गणेश की मूर्ति लगाई जाती है गोया बैंक कोई मंदिर है ।
- सिक्खों को कृपाण और केश रखने की इजाजत है ।
- जैन पर्व पर सरकार मांसाहार की बिक्री पर रोक लगा देती है ।
लेकिन बदनाम सिर्फ मुसलमान होता है - मुस्लिम तुष्टिकरण के नाम पर !कभी सुना - हिंदू तुष्टिकरण , सिख तुष्टिकरण , जैन तुष्टिकरण !
मुसलमानों के मामले में आम नागरिक अधिकार भी संघ /भाजपा से जुड़े लोगों को तुष्टिकरण लगता है और हिंदूओं को संसकृति के नाम पर मिलने वाली गैरजरुरी छूटें भी जन्मसिद्ध अधिकार !

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

मेरिट कैसे छिनी जाती है

मेरिट कैसे छिनी जाती है यह देखना हो तो हाल में मिर्चपुर की घटना देखिए ।
खबरों के अनुसार एक खेल प्रतियोगिता हुई तो एक दलित जीत गया । फिर जाति के कुंठा से ग्रस्त लोगों ने टीका टिप्पणी की और मारपीट तक बात पहूँची । यहाँ तक कि दलित परिवारों को गाँव छोड़ना पड़ा ।
खेल में काफी हद तक प्रदर्शन वस्तुनिष्ठ ढंग से मापा जा सकता है । यकीनन , दलित ने अपने प्रदर्शन के दम पर ही खेल जीता । लेकिन बाद की घटना दर्शाती है कि कैसे मेरिट/प्रतिभा की हत्या की जाती है ।
कल्पना कीजिए कि आगे इस घटना का परिणाम क्या होगा ? दलित अपने जान माल की सुरक्षा के लिए ऐसी प्रतियोगिता में भाग लेना बंद कर देंगे । जो करेंगे वे जीतने की कोशिश नहीं करेंगे । आगे चलकर संभव है वे खेल के बारे मं सोचना ही बंद कर दें । और बाद में सवर्ण कहेंगे - इन लोगों में तो मेरिट ही नहीं होता । दम है तो मेरिट दिखाए ।
मारपीट की घटना दलितों का दबाने और सवर्ण वर्चस्व को बरकरार रखने के लिए है । आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि अतीत में किस तरह सत्ता के दम पर बहुजनों के मेरिट की हत्या की गई होगी ।

मेरे बहुजन मित्रों - आप सरस्वती पूजा मत मनाइए ।

मेरे बहुजन मित्रों -
आप सरस्वती पूजा मत मनाइए ।
आपके लिए शिक्षा जरुरी है ।
आपके लिए पढ़ना जरुरी है ।
आपके लिए लिखना जरुरी है ।
आपके लिए विचार विमर्श के मंच बनाना और चलाना जरुरी है ।
आपके लिए पुस्तकालय/विद्यालय बनाना और चलाना जरुरी है ।
सरस्वती पूजा इन सब में सहायक नहीं है ।
अपनी संस्कृति बनाइए और चलाइए ।
मौज मस्ती ही करनी है तो पूजा पाठ के छद्म में नहीं खुल कर कीजिए !
ब्राह्मण संस्कृति ( जिसे वे हिंदू संस्कृति के छद्म रुप में पेश करते हैं ) का हिस्सा मत बनिए