बुधवार, 16 नवंबर 2016

मर्द का रोना

मर्द होने की अपना मजबूरियाँ होती हैं , वह खुल कर रो भी नहीं सकता । रोती हुई औरत सहज संवीकार्य है, लेकिन मर्द का रोना सहज नहीं माना जाता । उसे नौटंकी माना जाता है है या उसके नामर्द होने की निशानी । मौगा का खिताब तो मिल ही जाता है । वह उपहास का पात्र होता है ।
औरत को दुख होता है , वह रो देती है और उसे सहानुभूति मिलती है । मर्द को दुख होता है तो रोता नहीं , गुस्सा कर गालियाँ देता है । बदले में उसे और परेशानी होती है ।
यह नहीं कहा जा सकता है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे पुरुष को डर नहीं लगता है या उसे असुरक्षा का अहसास नहीं होता है । दरअसल वे कहीं ज्यादा अकेले होते हैं । वे किसी पर भरोसा नहीं कर पाते । उन्हें अपने सिपाहसलारों से भी बच कर रहना पड़ता है । जब वे कमजोर पड़ते हैं , उन्हें भावनात्मक सहारे के लिए कोई नजर नहीं आता ।
अकेला व्यक्ति क्रुर होता जाता है । और क्रुर व्यक्ति अकेला होता जाता है ।
मोदी के रोने की खबर पर आए ख्याल । लेकिन यह पोस्ट मोदी के बारे में नहीं है । न उसके समर्थन में और न विरोध में । सामान्य कथन है ।
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शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

बैंकर और सैनिक

चूँकि इन दिनों हर बात में सेना और सैनिकों का हवाला दिया जा रहा हा , इसलिए सेना का ही उदाहरण देता हूँ । कल्पना कीजिए - मोदी एक दिन अचानक युद्ध का ऐलान करते हैं और सेना को पाकिस्तान पर हमला करने के लिए कहते हैं । पुरे देश के साथ सेना भी चकित है । सेना आपात स्थिति से निपटने के लिए हमेशा तैयार रहती है , लेकिन युद्ध पर जाने के लिए भी कुछ तैयारी करनी पड़ती है । मसलन टुकड़ी को सीमा पर लगाना , टैक, विमान आदि सीमा के करीब वाली चौकी पर पहुँचाना । बैक अप तैयार करना आदि । लेकिन मान लीजिए सेना को बिना तैयारी के युद्ध में झोंक दिया जाए तो कैसी अफरा तफरी मचेगी ।
इसलिए तनाव की स्थिति होते ही सेना को अलर्ट जारी किया जाता है । सैन्य प्रमुखों को भरोसे में लिया जाता है ।
बैंक में बड़े नोट बैन करके जैसे बिना तैयारी के बैंक कर्मियों और जनता को अधर में लटका दिया गया है । बैंको को इसकी न जानकारी थी । चलिए गोपनीयता के लिए जानकारी नहीं दी गई माना जा सकता है । लेकिन नोटों की आपुर्ति ही नहीं है तो बैंक कर्मी क्या करेंगे ? यह बिल्कुल ऐसा है जैसे सेना को बिना गोला बारुद के युद्ध में झोंक दिया जाए । काम के बोझ से परेशानी नहीं है , लेकिन यकीन मानिए जितनी देर एक ग्राहक को यह समझाने में लगता है कि क्यों पेमेंट नहीं कर सकते, उतनी देर में तीन ग्राहकों को भूगतान कर सकते थे, यदि नोटों की व्यवस्था होती !
अब दूसरी बात । सेना को आज्ञा कारी और हर हाल मेें आदेश मानने की ट्रेनिंग और प्रावधान है । लेकिन कुछ मौकों पर सेना ने सरकार की ईच्छा का विरोध किया है और आदेश मानने में असमर्थता जताई है । जैसे - पुर्व गृहमंत्री नक्सलियों के खिलाफ सेना उतारना चाहते थे और तत्कालीन सेना प्रमुख ने विरोध जताया था और यह बेल मुंडेर नहीं चढ़ी । स्मृति के सहारे लिख रहा हूँ । लिंक गुगल कर लें ।
यह उदाहरण इसलिए दिया कि लोकतंत्र में शासक अपनी मनमर्जी नहीं कर सकता है । निश्चय ही सरकार के पास नीतिगत फैसले की ताकत हैं, लेकिन जिन संस्थाओं को इन फैसलों का क्रियान्वन करना है , उन्हें भी प्रक्रिया में शामिल किया जाता है । उनकी आपत्तियों , सुझावों को संज्ञान लिया जाता है । और यह संस्थानों की भी जवाबदेही है । खुद भूतपुर्व आरबीआई गवर्नर ने खुले आम सरकार की कई मंशाओं का सार्वजनिक विरोध किया क्योंकि वे उसे सही नहीं मानते थे और उनके रहते हो भी नहीं पाया । जैसे रेट कम करना आदि जो उनके जाते ही नए गवर्नर द्वारा मान लिया गया ।
अब बैंक के टॉप मैनेजमेंट और उनकी संस्था आईबीए को परखते हैं । लगता है वे सरकार के सामने यस सर के अलावा कुछ नहीं बोल पाते । बैंक में नोट बदलने से लेकर जन धन , मुद्रा , एपीवाई आदि सबमें जब योजनाएँ लागू हुईं तो बैंक के पास स्पष्ट दिशा निर्देश तक नहीं थे । जो समय सीमा और लक्ष्य दिए गए वे अव्यावहारिक थे । , और मेरे ध्यान में ऐसा कोई बयान तक याद नहीं आता जिनमें बिना तैयारी के योजना लागू करने की आलोचना की गई हो यो तैयारी के लिए पर्याप्त समय की माँग की गई हो या इसके लिए दवाब बनाया गया हो । आपके ध्यान में है तो कृपया मेरी जानकारी बढ़ाएँ । ऐसा लगता है कि बैंक - जो कि फिलहाल सरकार की सभी महत्वाकांक्षी योजनाओं को लागू करने वाली प्रमुख एजेंसी है - ने अपनी बारगेनिंग पावर खो दी है ।योजना का क्रियान्वन करने वाली संस्था को अंधेरे में रखकर ,

उन्हें बिना पर्याप्त साधन और समय दिए योजना की सफलता की उम्मीद नहीं की सकती ।

शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

एनडीटीवी पर प्रतिबंध



मैने एक अर्से से टीवी ही नहीं देखा, इसलिए कोई भी न्यूज चैनल नहीं देखता हूँ । इसलिए विभिन्न न्यूज चैनलों के बारे में अखबारों और फेसबुक मित्रों की पोस्ट से ही पता चलता है । इसलिए भिन्न चैनलों के कंटेंट पर साधिकार कुछ नहीं कह सकता हूँ ।
हाल में एनडीटीवी पर एक दिन का प्रतिबंध लगाया गया है । कारण बताया जा रहा है कि उसने पठानकोट हमले के दौरान गैरजिम्मेदाराना पत्रकारिता की और भारत की सुरक्षा से संबंधित जानकारी पब्लिक में ले आए जिससे सेना को नुकसान हुआ । एक तरफ पत्रकार बिरादरी में ज्यादातर लोग इसे अघोषित आपातकाल की निशानी बता रहे हैं तो भाजपा समर्थक खुशियाँ व्यक्त कर रहे हैं ।
पहली बात यह है कि यदि आरोप सच नहीं लगते । यह बिल्कुल ऐसा लग रहा है जैसे किसी बड़ी चूक को ढँकने के लिए आसान टार्गेट चुना गया है । पठानकोट एयरबेस की सुरक्षा की जिम्मेदारी सैन्य बलों की है । क्या उसके लिए किसी तरह की जवाबदेही तय की गई है ? क्या जाँच का परिणाम जनता को बताया गया है ?
दूसरे - बताया जाना चाहिए कि किस तरह एनडीटीवी की रिपोर्टिंग ने सुरक्षा को खतरे में डाला और अन्य चैनलों की रिपोर्टिंग क्या इस दोष से मुक्त है ? किस आधार पर एनडीटीवी को दोषी पाया गया और अन्य चैनल दोषमुक्त पाए गए ? और एक दिन के प्रतिबंध के बजाए आर्थिक दंड आदि के विकल्प पर विचार किया गया क्या ?
मीडिया से मुझे बतौर उपभोक्ता मुझे शिकायते हैं , लेकिन इस कारण सरकार द्वारा मीडिया पर लगाम लगाने की कोशिशों का समर्थन नहीं कर सकता हूँ । जो लोग प्रतिबंध पर खुशियाँ जता रहे हैं, सिर्फ इसलिए कि वे इसे पाकिस्तानी चैनल , देशद्रोही मानते हैं , शायद नहीं समझते कि न्यूज सिर्फ वह नहीं है जो सरकार बताए , न्यूज वह भी है जो सरकार के खिलाफ हो । देशहित के नाम पर यदि लोकतंत्र के आधार स्तंभों - जिनमें मीडिया भी एक है - पर इसी तरह हमले होते रहे तो देश इससे कमजोर ही होगा ।
स्वतंतर मीडिया के पक्ष में , प्रतिबंध के खिलाफ मेरा विरोध दर्ज किया जाए ।





बुधवार, 2 नवंबर 2016

सरकार से सवाल



यह एक विचित्र समय है जब लोग सवाल सत्ता से नहीं पूछ रहे हैं , सत्ता से सवाल करने वालों से ही सवाल पूछ रहे हैं ।
जैसा कि बार बार कहा गया है कि बिना जवाबदेही के अधिकार नहीं हो सकता और बिना अधिकार के जवाबदेही नहीं हो सकती है । फिलहाल सत्ता जिनके हाथ में है , सवाल उनसेही होंगे । इनसे पहले जो थे, उनसे भी सवाल होत थे । आगे जो आएँगे , उनसे भी सवाल होंगे ।
हमारे सवाल इसलिए है कि जनता की हैसियत से है, काँग्रेस के प्रवक्ता की हैसियत से नहीं । इसलिए काँग्रेस की कारगुजारियाँ उनसे ही पूछिए । वैसे काँग्रेस से सवाल तब जायज थे जब वे सत्ता में थे । अब वे विपक्ष में हैं तो उनका मुल्यांकन बतौर विपक्ष होगा । सरकार की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की है ।
हम सवाल इसलिए करते हैं कि हम जनता हैं । तारीफ करने के लिए तो पुरी सरकारी मशीनरी है । जनता का काम जयकारा लगाना नहीं है । हम सरकार इसलिए चुनते हैं कि वे जनहित में काम करें । इसके लिए उनके पास सत्ता और संसाधन पर अधिकार है । क्या वे अधिकार हमारे जैसों के पास हैं कि हमसे सवाल करते हैं ?
और जो मोदी , भाजपा के समर्थन में भक्त बने हुए हैं , बेहतर है वे जनता का हिस्सा बने रहें ।
और आखिर में ! प्रधानमंत्री से सवाल करने , उनके काम का मुल्यांकन करने के लिए प्रधानमंत्री होना जरुरी नहीं है , नागरिक होना काफी है , जोकि मैं हूँ ।

मंगलवार, 1 नवंबर 2016

मुठभेड़ में मौत



पुलिस मुठभेड़ - चाहे भोपाल का मामला हो या कोई और , मरने वाले कथित आतंकवादी हों या कथित अपराधी, पुलिस का वर्जन आँख मूँद कर नहीं माना जा सकता है । इसका मतलब यह नहीं कि पुलिस को अनिवार्यत: झूठा माना जाए, बल्कि यह है कि पुलिस का वर्जन क्रॉस चेक/ स्क्रुटिनी में टिकना चाहिए ।
भारत में पुलिस की छवि " वर्दी वाला गुंडा " की है । इसके लिए पुलिस और उसकी कार्यप्रणाली ही सबसे ज्यादा दोषी है । पुलिस से अपराधी कम आमजन ज्यादा खौफ खाते हैं । तमाम तरह के अपराधों और अपराधियों को संरक्षण देने में पुलिस की भूमिका जग जाहिर है । ऐसे में पुलिस का वर्जन अनालोच्य नहीं माना जा सकता है ।
जो लोग राष्ट्रवाद और आतंकवाद का नाम लेकर पुलिस पर सवाल उठाने को गलत बता रहे हैं , उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि लोकतंत्र में किसी को भी असीमित अधिकार नहीं है और अधिकार के साथ जिम्मेदारी और जवाबदेही भी जुड़ी है । पुलिस को यदि अधिकार हैं तो वे जवाबदेही से नहीं बच सकते ।
जो अपराध और आतंकवाद के विरोध के नाम पर मुठभेड़ में की गई हत्याओं का जश्न मना रहे हैं , वे नहीं जानते कि कल वे भी इसके शिकार हो सकते हैं । पुलिस को " लाइसेंस टू किल" नहीं जारी किया जा सकता ।
मुठभेड़ में हुई हत्याओं का विरोध आतंकवाद का समर्थन नहीं है । जिनकी संलिपत्ता आतंकवादी गतिविधियों में पाई जाती है , उन्हें फेयर और फास्ट ट्रायल देकर सजा दी सकती है । लेकिन शक के आधार पर किसी को भी उठा लेना , सालों जेल में डाले रखना और केस का किसी नतीजे पर नहीं पहूँचना,कस्टडी में मौत, मुठभेड़ में मौत आदि को सही
नहीं ठहराया जा सकता है ।
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