रविवार, 12 फ़रवरी 2017

सांस्कृतिक आदान प्रदान


वैलेंटाइन डे हो, जन्मदिन मनाने की रस्म हो , पोशाक का मामला हो, कथित संस्कृति रक्षक इसे भारतीय संस्कृति पर हमला बताते हैं और अपने विगत वैभव के लिए आठ आठ आँसू बहाते हैं ।
जब दो अलग संस्कृति मिलती हैं तो आदान प्रदान होता ही है । इसमें सत्ता भी एक भूमिका निभाती है । लेकिन एक पहलू यह भी है कि जब कोई चलन/परंपरा दूसरी संस्कृति के लोगों द्वारा अपनाया जाता है तो जरुर यह उनकी वह जरुरत को पूरा करता है जिसे उनकी अपनी संस्कृति ने पूरा नहीं किया ।
मसलन वैलेंटाइन डे को लीजिए । यह दो व्यस्क व्यक्तियों को प्रेम के इजहारके लिए मौके देता है । भारत में परंपरा से कोई ऐसा मौका कोई त्योहार अवसर नहीं होता है । होली के नाम पर कुछ छेड़छाड़, हँसी मजाक की छूट भले मिल जाती हो । सरस्वती पूजा को भले ही मिलने जुलने के लिए प्रेमियों द्वारा इस्तेमाल किया जाता हो , वह तो प्रेमियों का नहीं धार्मिक त्योहार है । कृपया अतीत के मदनोत्सव का उदाहरण न दें । कभी होता होगा , निकट अतीत में तो विलूप्त प्राय: ही था । इसलिए वैलेटाइन डे बजरंग दल , सेना आदि के विरोध के बाद भी फैलता रहा है ।
पारंपरिक रुप से भारत में देवी देवताओं के ही जन्मदिन मनाए जाते हैं । लेकिन अभी लगभग हर मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मदिन मनाया जाता है । क्योंकि यह एक व्यक्ति को केंद्र में रखकर मनाया जाना वाला उत्सव है । वह खुश हो जाता है कि परिवार और समाज के लिए उसकी जिंदगी की कोई अहमियत है और वे उसके होने से खुश हैं । इसलिए जन्मदिन मनाने की परंपरा ने भी जोड़ पकड़ा ।
पोशाक तो आजकी भागदौड़ की जिंदगी के हिसाब से बदलनी ही थी ।जिन्हें हम पश्चिमी पोशाक के नाम से जानते हैं, वे यूरोप की पारंपरिक पोशाक नहीं हो । अपना पारंपरिक पोशाक वे भी छोड़ चुके हैं या खास आयोजन तक सीमित हैं । जिंस सुविधाजनक होने के कारण लोकप्रिय है, पश्चिमी होने के कारण नहीं ।
इसलिए सांस्कृतिक आदान प्रदान को बाहूबल के प्रयोग से रोकने का प्रयास नहीं होना चाहिए ।

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