रविवार, 20 दिसंबर 2015

बैंक_बैंकर इतवारी बैंकिंग


बैंक_बैंकर इतवारी बैंकिंग 
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फरमान जारी हुआ था कि जिसने भी निश्चित संख्या में एपीवाई अटल पेंशन योजना – नहीं खोला , वह रविवार को भी ब्रांच खोले ! कह नहीं सकता आज के दिन कौन कौन से ब्रांच खोले गए ! यह भी तय नहीं कि फरमान जारी करने वाले खुद भी गंभीर थे या नहीं !खैर !!
                         जन धन हो , जीवन ज्योति हो , एपीवाई हो – जब भी वित्त मंत्रालय का दबाव होता है संख्या बढ़ाने के लिए बैंकर पर दबाव बनाया जाने लगता है !गौर तलब है कि वित्तीय सेवाएँ /प्रोडक्ट ग्राहक तभी लेगा जब वह सहमत हो कि यह उसके हित मे हैं !एपीवाई को लीजिये ! ग्राहक इस के प्रति आश्वस्त नहीं है ! उन्हे लगता है पैसे बहुत दिन तक जमा करना पड़ेगा और उस अनुपात में कम मिल रहा है ! अमूमन लोग प्रायः इतनी लंबी प्लानिंग नहीं करती ! संगठित क्षेत्रों मे कम करने वालों को तो अनिवार्य रूप से एनपीएस लेना पड़ता है ! यदि यह अनिवार्यता न हो तो कई बैंकर भी एनपीएस न करवाए !एनपीएस  और एपीवाई एक ही जैसी योजनाएँ हैं ! सिर्फ  टार्गेट ग्रुप अलग है !
यह भी गौरतलब है कि बैंक मे दस साल तक के लिए मियादी जमा राशि ली जाती है , लेकिन अधिकांश सीडीआर/आरडी  एक साल से तीन साल तक के बनते हैं , दस साल वाले का प्रतिशत बहुत कम है ! यह उदाहरण इसलिए कि यह सामान्य प्रवृत्ति है कि लोग इतनी लंबी प्लानिंग नहीं करते !
ऐसे मे कहना ये है कि यदि ग्राहक मे स्वीकार्यत ही नहीं है तो बैंकर कैसे एपीवाई की गिनती बढ़ाए !? जब छह दिन ब्रांच में आए ग्राहकों को एपीवाई के लिए राजी नहीं कर पा रहे तो सिर्फ इतवार को ब्रांच खुलवाने से कोई सार्थक नतीजा नहीं निकलने वाला ! और ये जन धन , जीवन ज्योति  आदि योजनाओं के लिए भी सही है !
इतवार को ब्रांच खुलवाना या इसके लिए धमकी जारी करना  सिर्फ और सिर्फ “बेवकूफाना बॉसगिरी” है !

मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

दिसंबर साल का बुढ़ापा है !

दिसंबर साल का बुढ़ापा है !
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दिसंबर मुझे उदास करता है ! साल के आखिरी दिनों मे बार बार मन पीछे मूड मूड कर देखता है – क्या किया ! कैसे जिया ! क्या हो सकता था !? क्या नहीं हुआ !? क्या हो गया जो नहीं होना चाहिए था ! मन गहरे अवसाद मे डूब जाता है – शायद कुछ नहीं किया ! शायद जिया नहीं , बस गुजर गया – वक्त से , लोगों से बिना छूए !मुझे गुजरा हुआ साल हमेशा व्यर्थ नजर आता है !
मौसम भी इन दिनों मदद नहीं करता ! सर्दियाँ उतर आती हैं !खांसी और बुखार का हमला हो चुका होता है !धूप बस दिख जाती है , निकलती नहीं !कुहासा अवसाद को गहरा ही करता है !जिस्म पर गरम कपड़ों का बोझ जेहन पर भी महसूस होता है !बिना नहाए या कौआ स्नान से जिस्म के साथ चेतना भी गंदी लगने  लगती है !
शायद बुढ़ापे मे मौत को करीब पाकर इसी तरह की उदासी और पीड़ा से गुजरते होंगे जैसा मैं दिसंबर मे महसूस करता हूँ !मुझे लगता है – दिसंबर साल का बुढ़ापा है !