गुरुवार, 30 मार्च 2017

सरकारी नोकरी में भर्तियों में 89 % कमी पर प्रतिक्रिया

टीओआई में छपी खबर के अनुसार सराकर द्वारा सीधी भर्ती से नियुक्ति में 89 % की कमी आई है । और आरक्षित पदों में 31 % प्रतिशत खाली है ।
विडंबना है यह सरकार बेरोजगारी दूर करने के वादे के साथ आई है । सरकारी नौकरी निम्नवर्गीय परिवारों और वंचित समुदाय को मुख्य धारा में लाने और उन्हें अवसर देने का एक प्रभावी तरीका है । दूसरे सरकार संस्थाओं द्वारा अपना कार्य निष्पादित करती हैं । न्यायालय हों , परिवहन विभाग हो, पुलिस हो , बैंक हो , सभी कर्मचारियों की भारी कमी से जूझ रहे हैं । कैसी विडंबना है कि एक तरफ बेरोजगारों की भीड़ है , दूसरी ओर पद भरे नहीं जा रहे हैं ।
गौर कीजिए सवर्ण समुदाय आरक्षण के खिलाफ जितना मुखर है , उतना वह न सीटों की कमी के बारे में है , न भर्ती पर रोक पर है । यह मानना गलत नहीं है कि सवर्ण बहुजनों के प्रति अपनी घृणा के कारण - भले ही अपनी दीवार गिरे , पड़ोसी की भैंस मरनी चाहिए - की मानसिकता से ग्रस्त हैं । आरक्षण के कारण उन्हें बहुजनों की भागिदारी सुनिश्चित करना उन्हें पसंद नहीं , लेकिन भर्ती पर रोक से उन्हें शिकायत नहीं है ।
सौ सीट पर भर्ती होगी तो आरक्षण के बावजूद कम से कम पचास सीट सवर्णों को मिलेगा । 89 % कटौती के बाद 11 में ज्यादा से ज्यादा 6 ।
भर्ती की प्रक्रिया सुचारु रुप से नियमित चलाने के मुद्दे पर सभी जातियों के युवा एक साथ माँग और संघर्ष कर सकते हैं । बशर्ते नीयत हो । यदि बीफ बैन , लव जिहाद , मंदिर वहीं बनाएँगे से पेट भरता है तो बात अलग है । करिए नमो नमो ! करिए भूखे पेट - भारत माता की जय !

बुधवार, 29 मार्च 2017

बैंक बैंकर बैंकर के साथ धोखाधड़ी

अक्सर छोटे शहरों, गाँवों , कस्बों में किराना आदि की एक दुकान होती है , नीचे दुकान और ऊपर रिहायश । ऐसे दुकान मालिक किशोरवय के लडकों को सामान आदि तौलने के लिए रखते हैं ।
अब घर की मालकिन सोचती है , दुकान पर काम केलिए रखा है तो क्या हुआ , घर का छोटा मोटा काम भी करवा लेना चाहिए । दुकान के काम के बजाए मालकिन की - थोड़ा मटर छील दो , थोड़ा मुन्ने को घूमा दो , आदि काम कर रहा होता है कि मालकिन खुश होगी , तो पगार ज्यादा मिलेगी । वहीं दुकान मालिक गुस्सा होता है कि जब देखो घर में घुसा रहता है ।
पगार के वक्त लड़का उम्मीद लगाता है कि दुकान के साथ घर का काम करने से ज्यादा वेतन मिलेगा , वहीं दुकान मालिक चिल्लाता है - ऐसे कैसे पैसे ? तुम दुकान का काम करते ही कहाँ हो ? जब देखो घर में घुसे रहते हो ।
उस समय लड़के को जो अपमान , ठग लिए जाने , मेहनत की कद्र न होने आदि का अहसास होता है वहीं हाल इन दिनों बैंकर का है । कहाँ बैंकर उम्मीद लगाये बैठे थे कि जन धन , अटल पेंशन , जीवन ज्योति आदि और अंत में सब से बढ़ कर विमुद्रीकरण को युद्ध स्तर पर लागू करने के बाद इस बार समय पर वेतन बढ़ोतरी होगी और अच्छी होगी ।
मगर ये क्या !? सरकार वेतन बढ़ाना तो दूर कर्मचारियों को मिलने वाली अतिरिक्त सुविधाओँ पर कटौती करने में लगी हुई है । यानि बैंक का लाभांश सरकार लेगी , और घाटे की पूर्ति कर्मचारियों से होगी !!
सोशल बैंकिंग करने के लिए बाध्य किया जाएगा और फिर पुछा जाएगा कि मुनाफा क्यों नहीं हुआ ! मुनाफा वाले काम पर फोकस रहेगा , तब न मुनाफा होगा ।
विडंबना देखिए कि कुछ बैंकर और भाजपा से संबद्ध यूनियन अब भी
"नमो नमो " कर रही है ! वे तब भी नमो नमो करेंगे जब सरकार देशभक्ति के नाम पर वेतन में भी कटौती करेगी ! सीमा पर जवान मर रहे हैं , तुम्हें सैलरी चाहिए ! देशद्रोही बैंकर !
#बैंक_बैंकर


मंगलवार, 28 मार्च 2017

यूपी में विपक्षी पार्टियाँ क्या कर रही हैं ?

योगी आदित्यनाथ ने मकतलों पर रोक लगायी । कहने के लिए यह सिर्फ अवैध मकतलों पर कार्यवाई है , लेकिन भीतर खाने ऐसे प्रोजेक्ट कियाजा रहा है कि योगी ने मूल्लों को सबक सिखाया है । यकीनन पहली नजर में इससे मुस्लिम ही प्रभावित नजर आ रहे हैं , लेकिन इससे पशुपालक हिंदू जातियाँ , चमड़े के व्यवसाय से जुड़े लोग अधिकांशत: दलित भी इससे प्रभावित होंगे ।
विरोध में माँस व्यापारियों ने हड़ताल किया है । हालाँकि नवरात्र शुरु होने के कारण - जब कई हिंदू मांसाहार का एक अवधि के लिए परित्याग कर देते हैं - इसका असर फिलहाल कम है , लेकिन उसके बाद बहुसंख्यक समुदाय भी इसकी जद में आयेगा ।
सवाल है कि ऐसे समय में क्या उत्तर प्रदेश में विपक्षी पार्टियाँ मुस्लिमों के नेतृत्व , उनके मुद्दे उठाने , प्रशासन पर दवाब बनवाने ,मकतलों को नियमित करने के लिए आवश्यक कानूनी, प्रशासनिक सहायता देने के लिए आगे आए ? गौरतलब है कि सपा और बसपा दोनों पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप है । सपा घोषित रुप से मुस्लिम यादव समीकरण साधती है और बसपा दलित मुस्लिम । लेकिन ऐसे समय में जब उनके पेट पर लात पड़ी है , ये पार्टियाँ और नेता क्या कर रहे हैं ? ये कैसा तुष्टिकरण है जहाँ उनके नागरिक अधिकार पर चोट पहुँची है और तुष्टिकरण का आरोप जिन पर लगता है , वे परिदृश्य से गायब हैं ।
भाजपा और योगी जो कह रहे हैं , वह उनकी नीति और नीयत है । लेकिन सपा और बसपा क्या कर रही है ?फोकट में मुसलमान का वोट चाहिए ? अगर भाजपा विकल्प नहीं मुसलमानों के लिए तो ये पार्टियाँ ही कौन सा विकल्प दे रही हैं ?दलित मुस्लिम या मुस्लिम - यादव या कोई भी गठबंधन पहले समाज में बनता है , फिर राजनीति में । ऐसे संकट की घड़ी में ही सौहार्द्य और सहयोग की भावना विकसित करने का मौका छिपा होता है ।
वैसे बेहतर होगा कि नेतृत्व मुसलमानों के बीच से निकले और अपने हक की लड़ाई खुद लड़े ।

सोमवार, 27 मार्च 2017

बैंक बैंकर होम लोन की ईएमआई ने बैंकरों की रीढ़ की हड्डी तोड दी है ।

इन दिनों बैंकरों में अजब किस्म की रीढ़विहीनता आ गयी है । हालाँकि यह एक जटिल विषय है और इसके तमाम पहलूओँ पर विचार एक पोस्ट में तो कतई संभव नहीं है ।
फिर भी कहना चाहूँगा कि यह रीढ़विहीनता हाल के दिनों में बढ़ी है और बढ़ती ही जा रही है । नौकरी करने की अपनी सीमा है । नौकरी खोने का डर वाजिब है । शिकायत इससे नहीं है । शिकायत उस चरण चुंबन प्रवृत्ति से है जहाँ बॉस बोले तुम गधे हो और बैंकर बोले - यस सर ! शिकायत उस डर से हैं जहाँ अनैतिक /भ्रष्ट काम भी सहमत न होने के बाद करते हैं कि बॉस को न कैसें बोले !शिकायत इससे है कि कोई ग्राहक /नेता बैंकर को गाली देकर /पीट कर चला जाता है और हम इसे सामान्य घटना की तरह लेते हैं ।
इस रेंगने वाली प्रवृति के तमाम कारण हो सकते हैं । लेकिन मुझे जो बड़ा कारण -हालाँकि एक मात्र कारण नहीं - लगता है साधारण ब्याज पर मिलने वाला गृह और वाहन ऋण । खासतौर से गृह ऋण ।
एक दो पीढ़ी पीछे तक आम मध्यमवर्गीय व्यक्ति घर तब बनाता था जब अन्य पारिवारिक जिम्मेदारी - मसलन बच्चों की पढ़ाई , शादी आदि निबटा लेता था । मने उम्र के अंतिम पढ़ाव पर । इसके लिए वह ऋण से ज्यादा अपने बचत, पीएफ फंड , रिटायरमेंट फंड पर निर्भर रहता था । अगर ऋण लेता भी था तो बहुत मामुली हिस्सा ।
इसके उलट आज के दौर में लोग तीस की उम्र में गृह ऋण ले रहे हैं । तीस साल की भूगतान अवधि का मतलब है लगभग पुरी नौकरी और उसकी आय कर्मचारी ने बंधक रख दी है । चूँकि कर्मचारियों को ब्याज में छूट मिलती है - साधारण ब्याज लगाया जाता है , क्रमिक भूगतान , बलूनिंग आदि का फायदा मिलता है तो वे बड़ा से बड़ा ऋण लेते हैं जो समान वेतन वाला लेकिन अन्य विभाग में नौकरी करने वाला अफोर्ड नहीं कर पाता । वे तब भी ऋण लेते हैं जब कि साठ साल तक उस फ्लैट में रह भी नहीं सकते तबादले के कारण । वे शुरुआत में ही ऋण लेकर फ्लैट लेना चाहते हैं ताकि कीमत में बढ़ोतरी का लाभ ले सकें । मार्जिन मनी न होने पर भी ऋण ले रहे है । मार्जिन मनी के लिए अलग से सोसायटी से ऋण ले रहे हैं । फिर कार भी चलानी है । मने कर्ज में नाक तक डूबने का पुरा इंतजाम है । एक झटका लगा और सिर भी पानी के अंदर ।
ऋण लेने का मतलब है भविष्य की आय को बंधक रखना । कमाने से पहले खर्च करना । इससे होता है कि ईएमआई को बोझ तले बैंकर की रीढ़ की हड्डी ही टूट जाती है और वह चूँ भी नहीं कर पाता है ।
नौकरीपेशा लोग न क्रांतिकारी हो सकते हैं और न ही विद्रोही । ऐसा अपेक्षित भी नहीं है । लेकिन कहीं तो सीमा रेखा खिंचनी ही पड़ेगी कि आत्म सम्मान बचा रहे , कि अपने होने पर भी शर्म न आने लगे ।
बैंकर मित्रों से अनुरोध है कि नौकरी भी बचाएँ , घर भी बनाएँ लेकिन रीढ
की हड्डी भी बचाकर रखें ।
#बैंक_बैंकर

रविवार, 26 मार्च 2017

बैंक बैंकर - विमानकर्मियों द्वारा सराहनीय एकता का प्रदर्शन

एक सांसद ने विमानकर्मी को पीट दिया । यहाँ गौरतलब और प्रशंसनीय बात यह है कि जिस तरह विमान कंपनी अपने कर्मचारी के हित में खड़ी हुई । सांसद के प्रभूत्व को नजरअंदाज करते हुए एफआईआर करवाया । अन्य विमान कंपनियों ने एकजूटता दिखाते हुए सांसद के उड़ने पर ही प्रतिबंध लगा दिया और मजबूरन सांसद को रेल से यात्रा करनी पड़ी ।
कल्पना कीजिए , यही हादसा किसी बैंक में बैंकर के साथ होता । होता ही रहता है । सांसद तो दूर आम ग्राहक द्वारा बैंकर को पीटने के कई वीडियो मौजूद हैं ।
तो बैंक में क्या होता ?
सांसद को कुछ नहीं होता, बल्कि पिटा गया कर्मचारी ही निलंबित होता । एफआईआर करवाना तो दूर बैंक उसे माफी माँगने के लिए मजबूर करती । उच्च अधिकारी साँसद के सामने गिड़गिड़ा रहे होते और पिटे गए कर्मचारी को गालियाँ दे रहे होते कि उसकी वजह से बैंक की छवि को नुकसान पहुंचा । बैंक के अन्य कर्मचारी चैन की साँस लेते कि उनके साथ ऐसा नहीं हुआ और कहीं वे खुद न फँस जाए कर्मचारी से दूरी बना लेते । दूसरे बैंक बढ़या मौका जान कर साँसद निधि के लिए साँसद के सामने लाइन लगाते और दावा कर रहे होते कि वह बैंक खराब है , हमारे बैंक आइए, बढ़या सर्विस मिलेगी ।
ऐसा ही होता और ऐसा ही होता है । किस बैंक और किस इंडस्ट्री के लिए काम कर रहे हैं हम जो सामान्य मानवीय सम्मान जो बिना पद, रुतबे , धन आदि के भेदभाव के हर किसी का अधिकार है , वह भी अपने कर्मचारियों के लिए सुनिश्चित नहीं कर पाती ?
उम्मीद नहीं पर कामना जरुर करता हूँ कि इस घटना से बैंक , बैंकर और यूनियन सबक ले कि अपने कर्मियों और इंडस्ट्री के लिए कैसे मजबूती से खड़ा हुआ जाता है ।
#बैंक_बैंकर


मकतल बंद किये जाने पर प्रतिक्रिया

योगी आदित्यनाथ नें मुख्यमंत्री बनते ही सख्ती दिखाते हुए कथित अवैध मकतलों को बंद करवा दिया ।
यहाँ कुछ बातें स्पष्ट करनी जरुरी है । वैध और अवैध कई मामले में सिर्फ लाइसेंस बनवाने और टैक्स देने के फर्क जितना ही होता है । अवैध का मतलब अनिवार्यत: अपराध नहीं है । असंगठित क्षेत्र के ज्यादातर छोटे व्यवसायी , फेरी वाले , सड़क किनारे ठेला लगाकर सब्जी गोल गप्पे आदि बेचनेवाले न केवल "अवैध " हैं , बल्कि अतिक्रमणकारी हैं । लेकिन यह ध्यान देना चाहिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह लोगों को रोजगार देने से लेकर आम आदमी की जरुरतों को पुरा करता है । संगठित क्षेत्र इतने विशाल देश की जरुरतों को पूरा नहीं कर सकता है । कोला बनाने वाली कंपनियाँ का बहुत बड़ा व्यापार है , लेकिन गन्ने का जूस, नारियल पानी आदि तो सड़क के किनारे कोई आम लोग बिना लाइसेंस के ही बेचते हैं । कंपनियाँ चिप्स बनाती हैं तो आलू , प्याज के पकौड़े तो बिना लाइसेंस के ही सड़क किनारे गलत ढंग से ठेला खड़ा करने वाला कोई आम शख्स ही बेचता है । जो मध्यमवर्गीय लोग उन्हें अतिक्रमणकारी कह कर कोसता है , वह भी वहीं खाने , पीने जाता है । माँस के व्यापार पर भी यही बात सही है । बड़े मकतल निर्यात केलिए डिब्बेबँद माँस बनाने में यकीन रखते हैं , स्थानीय माँग की पूर्ति के लिए नहीं ।
जो लोग इसे मुस्लिम पर कार्यवाई मान कर खुश हो रहे हैं , वे शायद यह नहीं देख पा रहे हैं कि इकोनोमी में सभी एक दूसरे से जुड़े हैं . यकीनन छोटे पैमाने पर माँस का कारोबार करने वालों में अधिकाँश मुस्लिम हैं , वे भी कसाई जाति के । लेकिन वे जिनसे पशु खरीदते हैं वे अधिकांशत: हिंदू ही हैं । चमड़े के व्यापार में लगी हिंदू ( कहने के लिए ) जातियों को चमड़े की सप्लाई भी बाधित होगी और उनका व्यवसाय भी प्रभावित होगा । सिर्फ सवर्ण हिंदू जिनकी नौकरी /व्यवसाय सुरक्षित है , इस फैसले पर वाहवाही करेगा ।
यहाँ यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि असंगठित क्षेत्र को नियमन का प्रयास और संगठित रुप - भले ही छोटे स्तर पर - में चलाने का प्रयास नहीं होना चाहिए । लेकिन इसके लिए एक टाइम फ्रेम बना कर , उन्हें लाइसेंस दिलवाने , सुरक्षा और अन्य मानकों का अनुपालन करने के लिए प्रोत्साहन आदि मिलना चाहिए । बड़े बड़े उद्योगपतियों को सरकारें जमीन अधिग्रहण करके देती हैं , ऋण दिलवाती हैं , टैक्स में छूट देती हैं तो अपने दम पर छोटा व्यवसाय करने वालों की इतनी मदद तो बनती है । सीधे सीधे बंद करना द्वेषपूर्ण है और सांप्रदायिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए है ।
मकतल बंद किये जाने पर प्रतिक्रिया

एंटी रोमियो स्क्वायड पर प्रतिक्रिया

उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने एंटी रोमियो स्क्वैड बनाने के निर्देश दिये हैं । इन दिनों ये अति सक्रीय हो गए हैं और उत्साह में - खबरों के अनुसार - पार्कों में बैठने वाले प्रेमी जोड़ों , साथ घूम रहे भाई बहनों तक को पूछताछ के नाम पर प्रताड़ित कर रहे हैं ।
इसे मानने में कोई शक नहीं कि सड़कों , पार्कों , बाजारों आदि सार्वजनिक जगहों पर पुरुषों का कब्जा है और वे महिलाओं की उपस्थिति सहज नहीं ली जाती है । हालाँकि हाल के दिनों में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ी जरुर है । हालाँकि चौक चौराहों पर शोहदों - उन्हें रोमियो या मजनू कहना उनके अपराध को कम करना है -की हरकतें यौन उत्पीड़न की श्रेणी में आता है और उनकी वजह से कई बार खास तौर से गाँवों और कस्बों में महिलाएँ घर में कैद कर दी जाती हैं , उनकी पढ़ाई छूड़ा दी जाती है आदि जिसे किसी भी तरह उचित नहीं कहा ज सकता है ।
लेकिन इस उत्साह में सहमति से किसी प्रेम संबंध में बने और सार्वजनिक जगह पर समय बिता रहे जोड़ों को परेशान नहीं किया जाना चाहिए । किसी नेक इरादे को सही तरीके से लागू करना जरुरी है और इसके लिए डंडे से ज्यादा संवेदनशीलता मायने रखती है । याद रखना चाहिए कि इसी देश में जनसंख्या नियंत्रण जैसा जरुरी कदम तानाशाही के जरिए लागू करने और तमाम अनियमितताओं की वजह से सरकार ही ले डूबी और अब कोई सरकार जनसंख्या नियंत्रण पर कदम उठाना तो दूर बात भी नहीं करती है । इसलिए सड़क पर छेड़खानी रोकने के लिए बनाए स्क्वायड को पुरी जिम्मेदारी और संवेदनशील ढंग से काम करना चाहिए ।
जरुरत इस बात है कि लड़कियों /महिलाओं को इस बात के लिए भरोसा दिलाया जाए पुलिस , परिवार और समाज द्वारा कि यदि वे छेड़खानी आदि की शिकार होती हैं वे तुरंत शिकायत करें तो उन्हें अनावश्यक रुप से कटघरे में खड़े करने के बजाए त्वरित कार्यवाई होगी और दोषियों को पकड़ेकर सजा सुनिश्चित की जाएगी । यूपी पुलिस जिस तरह कार्यवाई कर रही है , उससे आम समाज में पुलिसिया आतंक कहा जाएगा जो यकीनन सही नहीं है ।
सही काम सही तरीके से होना चाहिए । पुलिस का काम लॉ एंड ऑर्डर बना कर रखना है , बाबा आदम के जमाने की नैतिकता थोपना नहीं है ।

बुधवार, 22 मार्च 2017

माँस पर पाबंदी

अच्छा अच्छा ! मूल्लों को सबक सिखा रहे हैं ? सारे बूचड़खाने बंद करवा देंगे ? सारे मीट शॉप और रेस्त्राँ पर ताला लगवा देंगे ?
हम्म !
पर ये तो बताइए ! भारत की अधिकांश जनता माँस खाती है । दलितों पिछड़ों के भोजन में माँस शामिल है । माना कि उन्हें अपने बराबर नहीं मानते , लेकिन मूल्लों से लड़ाने के लिए तो उन्हें हिंदू मानते हैं न !वे क्या खाएँगे !?
अच्छा आप उन्हें नीच मानते हैं तो फिर माँस तो ठाकूर साहब /बाबू साहब लोग खाते हैं । उन पर भी पाबँदी लगाएँगे क्या ? बिना माँस खाए क्षत्रीय का बल कम नहीं हो जाएगा ?
अच्छा वे भी दोयम दर्जे के हैं । लेकिन हिंदू धर्म के कर्ता धर्ता नियंता ब्राह्मणों में बँगाली ब्राह्मण माँस खाता है , ओड़िया ब्राह्मण खाता है , और तो और तीनों लोक से न्यारे मैथिल ब्राह्मण भी खाता है । फिर ?
क्या मूल्लों को कष्ट देने के लिए हिंदू को भी कष्ट देंगे ? उसमें भी ब्राह्मणों को भी ?
अनर्थ कर रहे हो ! मुसलमान छोड़ भी दे तो "ब्राह्मण देवता "का श्राप लगेगा !
:-) :-)

रविवार, 19 मार्च 2017

योगी के मुख्यमंत्री बनने पर प्रतिक्रिया

योगी के मुख्यमंत्री बनने पर प्रतिक्रिया
- गौर कीजिए कि उत्तर प्रदेश सरकार में जाति समीकरण साधने का बहुत प्रयास किया गया है , बावजूद इसके भाजपा जातिवाद की राजनीति कर रही है , कोई नहीं कहता है । वहीं मायावती बहुजन के बजाए सर्वजन पर आ जाती हैं , पर जातिवादी कहलाती हैं ।
- मौर्य भले ही भाजपा की कमान संभाले रहे , लेकिन उन्हें नम्बर दो , वह भी साझा , से संतोष करना पड़ा । जब दौड़ नम्बर दो तर ही थी तो बसपा में ही क्या बुराई थी ? भाजपा ने वही किया जो उसकी राजनीति है - बहुजनों का इस्तेमाल अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में करेंगे और सत्ता शेयरिंग की बात आई है तो किनारे खिसका देंगे । महाराष्ट्र में जो जमीन मुंडे , खड़से आदि ने तैयार की , उस पर जब भाजपा सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री बना । यूपी में भी मुख्यमंत्री एक सवर्ण बना । कृपया योगी और महंत से धोखा न खाएँ । भारत में योगी/सन्यासियों की भी जाति होती है । सनातनियों के घर में तुलसी की पूजा होती है , कबीर की नहीं ।
- कट्टरता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । आडवाणी अटल के मुकाबले कट्टर माने जाते थे । मोदी आडवाणी के मुकाबले कट्टर माने जाते हैं । योगी मोदी के मुकाबले कट्टर माने जा रहे हैं । भाजपा की चली तो उसके बाद योगी से भी कट्टर सत्ता प्रधान मिलेगा । और भारतीय जनता की कट्टरता के प्रति "सहिष्णुता" बढ़ती रहेगी ।
- भाजपा और संघ अपने हिसाब से कट्टर तत्वों का इस्तेमाल करती है और मुसीबत में फँसने पर "फ्रिंज एलिमेंट्स " कह कर खुद से दूर बता देती है लेकिन भीतरखाने उनकी सुरक्षा और तरक्की का रास्ता बनाती रहती है । इस बार यह पर्दा नहीं रखा गया है ।
- जरुरी नहीं कि जिसका परिवार नहीं है , वह लाभ लोभ से परे है । हकीकत तो यह है कि जो लोग सत्ता और शक्ति के लिए लालायित रहते हैं , वे सबसे पहले परिवार की ही बलि देते हैं । मठों , मंदिरों में जितना धन , बल , प्रभाव और प्रतिष्ठा मिलती है , उसके लिए लोग परिवार छोड़ दें तो क्या आश्चर्य !
-जो लोग योगी के घोर आपराधिक बयानों का बचाव यह कह कर रहे हैं कि वह उनकी राजनीतिक मजबूरी है और मुख्यमंत्री बनने के बाद वे अपने हार्डलाइन से किनारा कर लेंगे , वे खुशफहनी पाल रहे हैं । योगी ने वे बयान सांसद रहते हुए दिये हैं । लोकतंत्र में साँसद भी एक बहुत जिम्मेदार पद होता है । तब फर्क न पड़ा तो मुख्यमंत्री पद से फर्क पड़ेगा , ऐसा मुझे नहीं लगता ।
- हालाँकि अब के समय में यह कहना अर्थहीन लगता है और कहने के अपने खतरे हैं , फिर भी कहना जरुरी समझता हूँ कि योगी की राजनीति का मैं समर्थन नहीं करता । न ही कभी करुँगा ।

मंगलवार, 14 मार्च 2017

पर्व त्योहार की आलोचना पर आपत्तियों का उत्तर

जब भी पर्व त्योहारों पर किसी कमी या प्रचलन पर कटाक्षनुमा वनलाइनर या कोई आलोचनात्मक टिप्पणी करता हूँ , अलग अलग लोगों की अलग प्रतिक्रिया आती है । जो कट्टर हिंदूत्व के समर्थक हैं , उनके व्यक्तिगत हमलों और उग्र कई बार अशालीन प्रतिक्रिया को छोड़ भी दे दूँ तो कई लोग जो सभ्य भाषा में आपत्ति जताते हैं , इसे कुतर्क और गैरजरुरी बताते हैं , उनके लिए यह पोस्ट है ।
पहली आपत्ति - कुछ आलोचना से सहमति जताते हैं । लेकिन इन्हें आलोचना गैरजरुरी लगती है । इन्हें लगता है कि समय के साथ सब बदल गया है और अपने आप बदल जाएगा ।
जवाब है कि बदलाव खुद नहीं आते , यह सतत प्रयास का नतीजा है । आज जो भी सकारात्मक परिवर्तन देखा जा सकता है , वह इसलिए है कि किसी ने कभी आपत्ति उठाई , आलोचना , गालियाँ सुनी , गोलियाँ खाई । यह हमारी जिम्मेदारी है कि आलोचना और परिष्कार की परंपरा को जिंदा रखें । कम से कम मैं अपने स्तर पर करता रहूँगा ।
दूसरी आलोचना - त्योहार के मौके पर क्यों ? रंग में भंग क्यों ?
जवाब है - जब आलोचना त्योहार और परंपरा की है तभी तो मामला उठेगा , जब मनाया जा रहा है । क्योंकि व्यवहार में अंतर इसी मौके पर पैदा किया जा सकता है । दूसरे -क्रिया जब हो रही है तो प्रतिक्रिया भी उसी समय होगी ।
तीसरी आलोचना - इससे कोई बदलाव नहीं आता है ।
जवाब है - हर लिखे और कहे शब्द और विचार का असर होता है । बदलाव तुरंत नहीं दिखता है । लेकिन इसके लिए प्रयास करते रहना चाहिए । कम से कम उसे मजबूत करने में मेरा योगदान नहीं होगा जिसे मैं गलत मानता हूँ ।
चौथी आलोचना - कुतर्क है । कुंठा है ।
जवाब है - कैसे पूछने पर तो जवाब नहीं मिलता है । व्यक्तिगत हो जाने का मतलब यही है कि जवाब नहीं है और संवाद के बजाए मुँह बंद करने की कोशीश है ।
पाँचवी आपत्ति - भावनाएं भड़का रहे हैं ।
जवाब है - मैं नास्तिक हूँ । इतना कहते ही धार्मिकों की भावना आहत हो जाती है । तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ? भावना आहत हो जाने के डर से तोकोई भी कुछ भी नहीं लिख / बोल सकेगा । जो भी निशाने पर होगा उसकी भावना आहत होगी । लोगों के पास विकल्प है कि वे न भड़कें और तथ्य और तर्क दें ।
छठी आपत्ति - सामाजिकता है ।उत्सव है ।
जवाब है - सामाजिकता के लिए धार्मिक पर्व ही एकमात्र विकल्प नहीं है । सामाजिकता और उत्सव के लिए ज्यादा उपयोगी और कम न्यूसेंस पैदा करने वाले मौके हैं । धार्मिक / पारंपरिक त्योहारों - कहिए कि इसे मनाने के तरीके जिसका धार्मिकता से कुछ लेना देना नहीं है - जैसे जबरदस्ती चंदा उगाही आदि - का विरोध असामाजिक होना नहीं है ।
बाकी अगली किश्त में ।

ईवीएम विवाद पर प्रतिक्रिया

ईवीएम विवादों के घेरे में है । मायावती और कुछ नेताओं ने इन पर छेड़छाड़ के आरोप लगाए हैं ।
पहली बात यह कि जब ईवीएम लागू किया जा रहा था , तब से इस पर शंका व्यक्त की जा रही थी । समय समय पर इस संबंध में कई खबरे आती रही हैं जो इसकी विश्वसनीयता पर संदेह उत्पन्न करता है ।
कोई भी तकनीक फूलप्रुफ नहीं होती । इसमें सेंधमारी की कोशिशें होती रहती है । इसलिए किसी तकनीकि को बार बार टेस्ट से गुजरना पड़ता है और उसका निरंतर नवीनीकरण करते रहने पड़ता है ।
इसलिए किसी भी तरह के संदेह का निस्तारण जरुरी है । इस तरह के किसी आरोप और संदेह को हवा में नहीं उड़ाया जा सकता है ।
सवाल है कि हार के बाद ही यह सवाल क्यों उठाया जा रहा है ? जाहिर सी बात है कि किसी सिस्टम से पीड़ित/नुकसान में रहने वाला ही सवाल उठाएगा । जब भाजपा विपक्ष में थी , तब ये सवाल वे उठाया करते थे ।
मेरे निजी दृष्टिकोण में सवाल कोई उठाए , इसे गंभीरता से लेते हुए शंकाओं का समाधान होना चाहिए । तद्नुरुप नियमों में अधिक कड़ाई और पारदर्शिता सुनिश्चित होना चाहिए ।
जिन्हें ईवीएम से शिकायत है , उन्हें चाहिए कि वे ऐसी हर खबर को दर्ज करें , सबूत जूटाएँ , एथिकल हैकर की मदद ले कर कमजोरियों को उजागर करें , इसे चुनाव आयोग, प्रेस , कोर्ट के समक्ष पेश करें ।
बेशक चुनाव प्रक्रिया को निष्पक्ष और सुचारु रुप से संपन्न कराने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है । लेकिन किसी कमी /त्रुटि/पक्षपात आदि के बारे में कम से कम प्रथम दृष्टया सही साबित करने और जाँच को आवश्यक साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य जूटाने का काम आरोप लगाने वाले को करना चाहिए । सपा , बसपा और आप के पास समय और संसाधन की कमी नहीं होनी चाहिए । यदि वे आरोप लगाकर चूप रह जाते हैं और पर्याप्त फॉलो अप नहीं करते तो अपनी विश्वसनीयता खतरे में डालेंगे ।
ईवीएम विवाद पर प्रतिक्रिया

रविवार, 12 मार्च 2017

उत्तर प्रदेश चुनाव परिणाम प्रतिक्रिया 4

उत्तर प्रदश मे चुनाव भाजपा ने जीता तो इसे मोदी की जीत बताया जा रहा है । यकीनन मोदी ने जिस तरह प्रचार किया और वे उत्तर प्रदेश में भाजपा के चुनावी चेहरा बने रहे , बनिस्पत किसी मुख्यमंत्री के चेहरे के , उसे देखते हुए ऐसा कहना गलत न होगा ।
लेकिन सवाल यह है कि फिर विधानसभा के चुनाव में राज्य के मुद्दे और राज्य के चेहरे कहाँ गए ?
इससे पहले भी महाराष्ट्र के स्थानीय चुनावों में जीत को मोदी की जीत बताया गया ।
भारत राज्यों का संघ है । लोकसभा चुनाव में केंद्र सरकार और उसके कामकाज की समीक्षा हो , उसे केंद्र के काम के लिए मैंडेट माना जाए तो ठीक है , लेकिन राज्य के चुनाव में राज्य के मुद्दे और राज्य के नेता हाशिए पर रहें , यह सही नहीं है ।
अगर ऐसा है तो फिर अलग अलग स्तरों पर चुनाव, सरकार और सत्ता संस्थानों की क्या जरुरत है ? लोकसभा का चुनाव हो और केंद्र सरकार ही राज्य से लेकर स्थानीय निकायों तक सबकी नियुक्ति करे , नियम बनाए और शासन चलाए ! ऐसा न व्यवहारिक है और न वांछनीय !खासतौर से भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में ।
लोकतंत्र में सत्ता विभिन्न स्तरों पर विभाजित है और उनकी अलग अलग भूमिकाएँ हैं । यदि सब कुछ केंद्र से संचालित होता है या केंद्र की राजनीति के अनुरुप होता है तो कहना पड़ेगा कि लोकतंत्र का स्पेस सिकुड़ रहा है । फिर स्थानीय निकायों में चुनाव के वक्त स्थानीय मुद्दों को कैसे और कब उठाएँगे लोग ? राज्य के चुनाव में राज्य की राजनीति के बजाए केंद्र की राजनीति हावी रहेगी तो राज्य स्तर के मुद्दे कब उठाए जाएँगे ?
अति शक्तिशाली केंद्रीय नेतृत्व और सत्ता का केंद्रीकरण लोकतंत्र और देश के लिए सही नहीं है ।
उत्तर प्रदेश चुनाव परिणाम प्रतिक्रिया 4

उत्तर प्रदेश चुनाव परिणाम पर प्रतिक्रिया 3

कहा जा रहा है कि मुस्लिम भाजपा को वोट कैसे दे सकते हैं !
सवाल जायज है । आखिर भाजपा ने ऐसा कुछ नहीं किया है कि जिसे कहा जाए कि उन्हेंने मुसलमानों को खुद से जोड़ने के लिए प्रयास किया है । उन्होंने एक भी मुसलमान प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया । चुनाव के अंतिम चरणों में खुल कर मुसलमानों का डर दिखा कर ध्रुवीकरण की कोशीश की । जिसमें वे ऐसा करने में कामयाब हुए ऐसा लगता है ।
लोकतंत्र प्रतिनिधित्व का मामला है । राजनीति में सबकी भागिदारी सुनिश्चित होनी चाहिए । देश के सबसे बड़े राज्य में एक पार्टी का बहुमत है जिसमें उस राज्य में रहने वाली एक बड़ी आबादी - मुसलमान - का एक भी प्रतिनिधि नहीं है । यह लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है । और यह मुस्लिम तुष्टिकरण नहीं है ।बल्कि प्रतिनिधित्व लोकतंत्र मे्ं अधिकार है । यह अधिकार हर समुदाय को है । मुसलमानों का भी ।
कुछ लोग बड़ी मासूमियत - जो उनकी धूर्त्ता होती है - से पूछते हैं कि क्या दलित का प्रतिनिधित्व सिर्फ दलित करें और मुस्लिमों का मुस्लिम ! सिद्धांत के स्तर पर जमीनी हकीकत को नजरअंदाज कर इस सवाल का उत्तर है - नहीं । लेकिन यदि वास्तविक सामाजिक , राजनीतिक परिदृश्य को संज्ञान में लें तो कहना पड़ेगा कि यदि आबादी के बहुत बड़े हिस्से को प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है तो यह लोकतंत्र की हार है ।अगर यह सुनिश्चित नहीं किया गया तो समाज में वर्चस्वशाली समूह ही सत्ता केंद्रों पर काबिज रहेगा ।
इस तर्क पद्धति पर तो अंग्रेजों के शासन से ही एतराज नहीं होना चाहिए था । विकास तो उन्होंने भी किया था ।
इसकी संभावना रहती है , लेकिन गारंटी नहीं कि कोई मुसलमान /दलित/पिछड़ा अपने समुदाय के हित में काम करेगा । लेकिन इस बात की संभावना और भी कम है कि कोई वर्चस्वशाली समूह का व्यक्ति उनकी समस्याओं को समझेगा और उनके लिए काम करेगा । जो व्यक्ति वंचित समुदाय से होते हुए भी समुदाय के हित के लिए काम नहीं करता या आवाज नही उठाता तो वह अयोग्य है , उसे पद /सत्ता से हटना चाहिए । लेकिन उसके बाद कोई उनके समुदाय को ही प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए जो समुदाय हित में काम कर सके । किसी ऐसे शख्स/पार्टी को तो नहीं ही चुना जा सकता है जो खुले तौर पर वंचित समुदाय के मौलिक अधिकारों तक के खिलाफ हो ।
उत्तर प्रदेश चुनाव परिणाम पर प्रतिक्रिया 3

शनिवार, 11 मार्च 2017

इरोम शर्मिला की हार पर प्रतिक्रिया

इरोम शर्मिला चुनाव हार गयीं । सिर्फ हारी ही नहीं बुरी तरह हारीं । सौ वोट  भी न जूटा सकीं । ऐसा होना इरोम से ज्यादा लोकतंत्र और मणिपुर की जनता की हार है । जिस शख्स नें अपना जीवन अफ्स्पा हटाने के लिए लगा दिया , जिसने अकेले न केवल इस मुद्दे को जिंदा रखा , उसे राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । पूछा जा सकता है कि इसका हासिल क्या रहा । लेकिन अकेले सिर्फ अपनी जिद पर इतना लंबा संघर्ष मायने रखता है ।
लोकतंत्र की अपनी संभावनाएँ हैं तो अपनी सीमाएँ हैं । इरोम की हार को लेकर हम लोकतंत्र पर सावल तो उठा सकते हैं । लेकिन यह बात भी ध्यान रखनी होगी कि लोकतंत्र में व्यक्ति से ज्यादा समूह महत्व रखता है । चुनाव तो वही जितेगा जो अपनी बात जनता को समझा सकेगा और उसे साथ लेकर चल सकेगा । इसके बगैर व्यक्तिगत स्तर पर कोई कितना भी ईमानदार हो , उनका मिशन कितना ही उच्च क्यों न हों , वे आम जनता को कनविंस न कर कें तो चुनाव में जीत नामुमकिन है ।
विचार बदलने की जरुरत नहीं है , रणनीति बदलने की जरुरत है ।
फिर भी , इरोम हम शर्मिंदा हैं ।
इरोम शर्मिला की हार पर प्रतिक्रिया

उत्तर प्रदेश चुनाव परिणाम 2

मैं किसी पार्टी का कैडर और सपोर्टर नहीं हूँ । मेरे लिए मुद्दे अधिक महत्वपूर्ण हैं ।
फिर भी उत्तर प्रदेश चुनाव में मेरा समर्थन बसपा को था । और बावजूद इस हार के मुझे अपने निर्णय पर पछतावा नहीं है ।बसपा और मायावती भारतीय लोकतंत्र की सफलता के स्मारक हैं । उनका आज भले ही धूमिल दिख रहा हो ।
मैं न केवल उत्तर प्रदेश में बसपा को देखना चाहता हूँ , बल्कि अन्य राज्यों में उसके फैलने और राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प के रुप में उभरने की कामना करता रहा हूँ । बसपा एकलौती बड़ी पार्टी है जिसका नेतृत्व एक दलित स्त्री के हाथ में है । जिसका मिशन सामाजिक न्याय है । इकलौती पार्टी जिनके नाम में ही बहुजन है ।बसपा और मायावती से शिकायतें अपनी जगह हैं ।
लेकिन गजब कि बसपा अपनी जमीन पर ही सिमट रही है । लोकसभा में एक भी सीट न जीत पाना और विधानसभा में ऐसा प्रदर्शन पार्टी के नेतृत्व और रणनीति पर और सवालिया निशान उठाते हैं । ईवीएम, मीडिया पर ठीकरा फोड़ना सही नहीं है । हार स्वीकार की जानी चाहिए ।
बसपा की हार बहुजन को पीछे ढकेल देगी और मुझे डर है कि कहीं वह बढ़त भी गँवा न दिए जाएँ जो एक लंबे संघर्ष से थोड़ा बहुत हासिल हुआ है ।
मेरा हमेशा से मानना है कि राजनीति सिर्फ चुनाव केंद्रित नहीं होनी चाहिए । लेकिन चुनाव और जीत के महत्व को नजरअँदाज भी नहीं किया जा सकता है । यदि इसी तरह चुनाव दर चुनाव हारते रहे तो विचारधारा और मिशन की लाश ढोने के लिए भी कंधे नहीं मिलेंगे ।
मुझे भाजपा की जीत से ज्यादा बसपा की हार का दुख है ।
उत्तर प्रदेश चुनाव परिणाम 2

उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम पर प्रतिक्रिया 1

भाजपा ने उत्तर प्रदेश में प्रचंड बहुमत हासिल किया है । कहा जा रहा है कि गैर जाटव दलित और गैर यादव पिछड़ों का वोट भाजपा को मिला है । सवर्ण तो हमेशा से भाजपा के वोट बैंक हैं । सपा और बसपा से बहुजनों की शिकायतें वाजिब हो सकती हैं । लेकिन उन्हें भाजपा ही एक विकल्प लगा तो सवाल बनता कि किस आधार पर ? यदि मायावती नें दलितों के लिए कुछ नहीं किया ( मै्ं इससे सहमत नहीं ) , सपा ने सिर्फ यादवों का ही भला किया तो भाजपा ने ही बहुजनों के लिए क्या किया है , सिवा हिंदूत्व की घूट्टी पिलाने के ?
फिर भी , यदि बहुजनों ने भाजपा को सत्ता में लाने के लिए वोट दिया है तो उन्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि सत्ता और प्रशासन में उनकी निर्णायक भागिदारी हो , सिर्फ टोकन भागिदारी नहीं । चाहे मंत्रीमंडल हो , सरकारी ठेके हों , शिक्षण संस्थान हों , नौकरियाँ हों । ऐसा नहीं होना चाहिए कि कथित रामराज लाने में हनुमान की तरह लड़े और बस सिंहासन के पैताने बैठकर अपने को कृतार्थ माने । सिंहासन पर जगह मिलनी चाहिए । ऐसा नहीं होना चाहिए कि हिंदू हिंदू कर भावनाएँ सहला दें और सारे पद , लाभ ब्राह्मण , ठाकुर ले उड़ें ।
जिन दलित और पिछड़े नेताओं ने भाजपा का रथ हाँका है , यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि शासन और समाज में सामाजिक न्याय हो और सत्ता के हर स्तर और रुप में बहुजनों का प्रतिनिधित्व और प्रभूत्व बढ़े ।
बहुजनों ने भाजपा की सरकीर बनवाई है तो पाँच साल के शासन में इसकी पुरी कीमत भाजपा से वसूली जानी चाहिए ।
, उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम पर प्रतिक्रिया 1

गुरुवार, 9 मार्च 2017

एक्जिट पोल पर प्रतिक्रिया

परीक्षा हॉल से निकलने के बाद जैसे छात्र छात्राएँ आपस में विचार करते हैं , घर पहूँचने पर परिवार रिश्तेदार वाले रिजल्ट क्या रहेगा कि पूछताछ शुरु कर देते हैं , एक्जिट पोल की चर्चा भी उसी तरह की है । तीर कमान से निकल चुका है । तरह तरह के कयास लगाने और उस पर बहस करने से बेहतर है कि नतीजों का इंतजार किया जाए ।

हाँ पार्टी से जुड़े लोगों , पत्रकार, राजनीति विशेषज्ञ के रुप में अपना कैरियर बनाने वालों , मीडिया आदि के लिए यह एक्जिट पोल की कवायद जरुरी है और सटीक अनुमान लगाना भी ताकि इसे वे अगली बार भूना सके ।
जनता के लिए एक्जिट पोल का कोई महत्व नहीं है । चुनाव के पहले वाले पोल जन धारणा को प्रभावित करने की क्षमता के कारण महत्व भी रखते हैं । एक्जिट पोल तो बिल्कुल नहीं ।परिणाम का अनुमान कर जोड़ तोड़ करने के लिए पार्टियों और नेताओं के लिए भले इसका महत्व हो ।
मेरा स्पष्ट मानना है कि लोकतंत्र में राजनीति सिर्फ चुनाव तक सीमित नहीं रहनी चाहिए । चुनाव का अतिशय महत्व है । लेकिन जनता के दृष्टिकोण से जरुरी है कि सरकार किसी की भी हो , सत्ता, संस्थान और प्रशासन पर लगातार जनहित के लिए कार्य करने के लिए दवाब बनाया जाये । लोकतंत्र में हमारी पार्टी की सरकार और दूसरी पार्टी की सरकार का विभाजन कम से कम आम जनता को नहीं रखना चाहिए । सरकार सबकी है । उनकी भी जिन्होंने सत्तारुढ़ पार्टी को वोट नहीं दिया । जनहित के लिए काम करना सरकार का दायित्व है ।
#एक्जिट पोल पर प्रतिक्रिया

मंगलवार, 7 मार्च 2017

जेपीएससी में सवर्णों को पचास प्रतिशत आरक्षण


पिछले दिनों झारखंड लोक सेवा आयोग ने रिजल्ट जारी किया था । उसमें ओबीसी का कट ऑफ जेनरल से ज्यादा था । यह अप्रत्यक्ष रुप से सवर्णों को पचास प्रतिशत आरक्षण देना है । अगर जेपीएससी में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे व्यक्तियों के सरनेम पर गौर करेंगे तो आश्चर्य नहीं होगा ।
पहले भी कहा है , फिर कहता हूँ कि सवर्ण रॉकेट साइंस समझ सकते हैं , बस आरक्षण नहीं समझ सकते ।या कहिए कि न समझने का नाटक करते हैं । सत्ता संस्थानों में जड़े जमाए ये सवर्ण इस तरह के अनेक हथखंडे अपनाते हैं , और आरक्षण सही तरीके से लागू नहीं करते । कभी सीट को विभागों में बाँटकर , कभी - उपयूक्त उम्मीदवार नहीं मिले , कभी तकनीकि कारणों से आवेदनों को निरस्त कर आदि । इनका उपयूक्त ही विरोध होता है । लेकिन इसमें बहुजनों का बहुमूल्य समय और संसाधन लगता है जिससे बचा जा सकता है । आरक्षण संविधान प्रदत्त अधिकार है । इसे लागू करना संस्थानों का दायित्व है । यदि वे ऐसा नहीं करते तो इसे कार्य निष्पादन में कमी माना जाना चाहिए और जिम्मेदार अधिकारियों को पदच्यूत करने और दंडात्मक कार्यवाई सुनिश्चित की जानी चाहिए । बहुजनों और उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने वालों को ध्यान देना चाहिए कि यदि ऐसा नहीं हुआ तो इस तरह के हथकंडे बार बार अजमाए जाते रहेंगे । इसलिए सिर्फ ऐसे मामले उठाना काफी नहीं है , जरुरी है , पर उससे ज्यादा जरुरी है संस्थानों / अधिकारियों और सरकार की जवाबदेही तय करना ।
यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इस तरह की हरकतें भाजपा शासित प्रदेशों में ज्यादा होती है । जो बहुजन कथित हिंदू राष्ट्रवाद की भाँग पीकर भाजपा के रथ के सारथी बने हुए हैं , उन्हें खुद से और भाजपा से सवाल करना चाहिए कि उनके राज्य में उनके संविधान प्रदत्त अधिकारों का हनन क्यों हो रहा है । भाजपा के साथ बने रहकर कुछ नया पाने के बजाए जो मिलना चाहिए वे भी गँवा रहे हैं ।
और मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि सवर्ण इस पोस्ट को जातिवाद मानेंगे , लेकिन संस्थान द्वारा सवर्ण हित में नियमों की धज्जियाँ उड़ाना उन्हें जातिवाद नहीं लगेगा । टिपीकल द्विज मानसिकता !

रविवार, 5 मार्च 2017

क्या भारत बाँग्लादेश से सबक लेगा ?

बाँग्लादेश नें अल अँसार इस्लाम पर प्रतिबंध लगा दिया है । यह संस्थान कई नास्तिक, धर्मनिरपेक्श लेखकों/बलॉगरों की हत्या के लिए जिम्मेदार माना जाता है । विडंबना देखिए कि बाँग्लादेश मुस्लिम बहुल देश है जिसके बारे में धारणा है कि वे कट्टर हैं । वहाँ प्रशासन ने अपना काम किया है और उन संस्था /व्यक्ति को दंडित किया है जो धर्म पर हमले/आलोचना करने आदि के मुद्दे पर हत्या करने /आतंकित करने में लगे हुए थे ।
वहीं इसके उलट भारत जिसकी छवि धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी है , यहाँ देश भक्ति के नाम पर , हिंदू धर्म के नाम पर हाल के दिनों में कई हत्याएँ हो चुकी हैं । देशभक्ति क नामं पर आतंक फैलाया जा रहा है ।
लेकिन प्रशासन इन्हें रोकने के बजाए उन्हें शह दे रहा है , उनके पक्ष में केंद्रीय मंत्री बयान दे रहे हैं ।
लगता है कि भारत का प्रशासन भारत को पाकिस्तान बनाने में लगा हुआ है । न हो तो , बाँग्लादेश से ही कुछ सबक ले !

शुक्रवार, 3 मार्च 2017

बैंक में नगद निकासी पर शुल्क लगाने पर प्रतिक्रिया



लोग एक पॉश रेस्त्राँ जाते हैं । हजार दो हजार का खाने का बिल बनता है , लेकिन रेस्त्राँ पानी भी मुफ्त नहीं परोसती , बल्कि बिसलेरी या अन्य पैकेज्ड पानी लेने के लिए बाध्य करती है । यह किसी को आपत्तिजनक नहीं लगता है ।
लोग मिठाई के दूकान में जाते हैं । दूकान वाला डिब्बे का अलग से चार्ज लेता है । यह किसी को आपत्तिजनक नहीं लगता है ।
मॉल वाले पैकेजिंग के पैसे अलग से जोड़ते हैं , यह किसी को आपत्तिजनक नहीं लगता है ।
कोल्ड ड्रिंक वाला एमआर पी से दो रुपए ज्यादा ले लेता है , फ्रिज के चार्ज के नाम पर । यह किसी को गलत नहीं लगता है । लगता भी हो तो विरोध नहीं होता या उसका असर नहीं होता और मामला ऐसे ही चल रहा है ।
लेकिन जैसे ही बैंक ने तयशुदा सीमा से अधिक बार नकद लेन देन पर चार्ज वगानो का फैसला किया है , चहूँ ओर विरोध हो रहा है । कई जोक चल रहे हैं । कि बैंक वाले किडनी निकालने पर तुले हुए हैं । आदि । मैं मजाक को मजाक में लेने का हिमायती हूँ । बतौर बैंकर हँस कर टाल दूँगा । लेकिन कुछ बातें स्पष्ट करना चाहूँगा ।
- पहला लोगदों का पैसा सुरक्षित है । उनके निकासी पर कोई पाबंदी नहीं है । सिर्फ नगद/कैश की निकासी पर पाबंदी है । दोनों में फर्क है । खाते से खाते में अंतरण, चेक/नेट बैंकिंग, कार्ड , यूपीआई आदि से भूगतान पर कोई पाबंदी नहीं है ।
नकद लेन देन पर भी जो सीमा लगायी गयी है , वह व्यवहारिक है । जब बैंक का कम्प्यूटरीकरण नहीं हुआ था , तब भी बचत खातों में एक निश्चित संख्या से ज्यादा बार लेन देन करने पर चार्ज लगता था । एक निश्चित संख्या से अधिक चेक बुक लेने पर चार्ज लगता था, वरना फ्री होता था । केवायसी में ढील दे कर खोले गये जन धन खातों में भी शुरु से ही नगद रखने और निकासी पर पाबंदी है । ऐसा इन खातों का दुरुपयोग बिजनेस/मनी लॉन्ड्रिंग आदि के लिए न करने देने के लिए है । बचत खातों के लिए लक्ष्य समूह को इससे ज्यादा जरुरत नहीं पड़ती है ।
दूसरे - बैंक में जब भी कोई चार्ज लगता है , ग्राहकों को शिकायत होने लगती है । ऐसी शिकायतें उन्हें दूसरी जगहों मसलन रेल आदि पर नहीं होती हैं । वजह यह है कि वे बैंक में अपना पैसा रखते हैं तो उन्हें लगता है कि वे बैंक पर अहसान कर रहे हैं और उन्हें सारी सुविधाएँ मुफ्त मिलनी चाहिए । वह भी ब्याज के अलावा ।
दोनों अलग बाते हैं । जब लोग बैंक में पैसे रखते हैं तो उसके एवज में उन्हें ब्याज मिलता है । जब अन्य सेवाएँ दी जाती हैं तो उसके एवज में शुल्क लेना किसी भी तरह गलत नहीं है । शुरुआत में एटीएम, एसएसएस आदि को लोकप्रिय बनाने के लिए चार्ज नहीं लिया जाता था । लेकिन थर्ड पार्टी को तो बैंकों को पैसा देना ही पड़ता है । वह खर्च बैंक खुद वहन करती रही है । इसलिए धीरे धीरे उसका भार ग्राहकों पर देना उचित है । कई बार तो रिजर्व बैंक ने बैंकों की बाँह उमेठ कर चार्ज न लगाने के लिए मजबूर किया है - ग्राहक सेवा के नाम पर । यह हमेशा नहीं चल सकता है ।
स्पष्ट करने के लिए उदाहरण दूँगा । बैंक बचत खाताधारकों को 4 % की दर से भूगतान करती है । लेकिन चालू खााताधारकों जिसे व्यवसायी वर्ग इस्तेमाल करता है , को कोई ब्याज नहीं दिया जाता है । लेकिन उनके संव्यवहार ( ट्रांजेक्शन ) पर कोई लीमिट नहीं होती है । यह प्रावधान सेवा देने के खर्च को समायोजित करने के लिए है । बैंक ऐसे ही चलते हैं ।
उद्योगपति लॉबी , रिजर्व बैंक और सरकार के दवाब में बैंक ने ऋण पर ब्याज दर गिराए हैं । इससे बैंक का ब्याज द्वारा लाभ अर्जन घटा है । इसलिए बैंक के पास अन्य श्रोतों से आय बढ़ाने के बारे में सोचना अनिवार्य है । इसलिए यह जरुरी है कि जो सुविधाएँ मुफ्त दी जा रही थीं , उस पर शुल्क लगाया जाए ।
यह भी - बहुतों की भावना आहत हो जाएगी और देशद्रोही का तमगा मिल जाएगा, फिर भी - कहना जरुरी है कि भारतीयों को कोई चीज मुफ्त मिले तो बहुत गैर जिम्मेदाराना तरीके से इस्तेमाल करते हैं । मसलन जमा पर्ची / निकासी पर्ची मुफ्त है और ग्राहकों की सुविधा के लिए डेस्क पर खुले में रखी जाती है तो लोग एक पर लिखते हैं और चार फाड़ते हैं । बहुत सारे उदाहरण हैं । इसलिए चार्ज /शुल्क जरुरी है । हाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि चार्च व्यवहारिक और उचित दर से लगाए जाएँ ।
पहले बैंकिंग सेवा पर समय और स्थान की कई पाबंदियाँ थीं । शुल्क तब भी लगता था - मसलन डिमांड ड्राफ्ट बनवाने के लिए । बैंक ने तकनीकि में भारी निवेश किया है ताकि स्थान और समय की बंदिश बैंकिंग पर न रहे । तकनीकि की वजह से आज बैंक और पैसा , अंतरण सेवाएँ 24*7 *52 उपलब्ध है ।और पहले की तुलना में बहुत सी सुविधाएँ दी गयी हैं । जो लोग 50 के आस पास के व्यवसायी हैं , उनसे पूछिए तो वे बेहतर ढंग से तब और अब का फर्क बता देंगे । बैंक एक व्यवसायी संस्थान है । सेवा प्रदाता है । तो सेवा का शुल्क तो लिया ही जाएगा । लोगों को शिकायत नहीं होनी चाहिए ।
जो लोग विरोध स्वरुप बैंक में रुपये न रखने की बात कह रहे हैं , वे नगद रखने का जोखिम मोल ले रहे होंगे और संभावित ब्याज भी गँवा रहे होंगे ।हिसाब लगाएँगे तो समझ में आएगा कि बैंक में पैसे रखना और इलेक्ट्रॉनिक लेन देन करना ही ग्राहकों के हित में है ।
नोट : विचार निजी है और किसी संस्थान से संबंधित नहीं है ।