बुधवार, 24 अगस्त 2016

क्या राष्ट्रद्रोह चुतिया टाइप की कोई नई गाली है¿



क्या राष्ट्रद्रोह चुतिया टाइप की कोई नई गाली है¿
ज्यादा समय नहीं हुआ , जब राष्ट्रद्रोह पढ़ते सुनते ही किसी गुरुतर अपराध और घटना का ख्याल आता था । जैसे – सरकार का तख्ता पलट । बड़े पैमाने पर जान माल का नुकसान पहुँचाने वाली घटना , सेना के खुफिया राज दुश्मन देश को बेचना , आदि । लेकिन इन दिनों राष्ट्रद्रोह और राष्ट्रद्रोही शब्द का जिस लापरवाही से कई उपेक्षणीय घटनाओं के लिए किया गया है, इससे राष्ट्रद्रोह शब्द ने अपना वजन खो दिया ।
अब देखिए एक राजनेता सह अभिनेत्री ने कहा कि पाकिस्तान नरक नहीं है । यह रक्षा मंत्री के बयान का जवाब था । लेकिन इसी आधार पर किसीअतिराष्ट्रवाद ( जी हाँ यह एक बिमारी है ) से पीड़ित शख्स ने उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज कराने की कोशिश की । कोर्ट इसे खारिज कर देगी या सजा नहीं मिलेगी यह अलग बात है , लेकिन इसे कोई राष्ट्रद्रोह समझता है यह नोट करने वाली बात है ।
इससे पहले एक नारा लगाने पर , चाहे वह कितना ही आपत्तिजनक हो , राष्ट्रद्रोह का आरोप लगा । इस तरह की घटनाएँ किस तरह से राष्ट्रद्रोह जैसा गुरुतर अपराध माना जा सकता है ¿
क्या गुलाम अली की गजलें सुनने पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगेगा ¿
क्या फैज और फराज को पढ़ने पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगेगा ¿
क्या फवाद खान और नरगिस फाखरी की फिल्में देखने पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगेगा ¿
क्या युनूस खान की बैटिंग की तारिफ करने पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगेगा ¿
क्या “हैपी भाग जाएगी “के निर्माता , निर्देशक , अभिनेता आदि पर भी राष्ट्रद्रोह का आरोप लगेगा जिन्होने फिल्म में पाकिस्तानियों को आम भारतीयों जैसा ही दिखाया है ¿

पाकिस्तान से हमारे राजनीतिक संबंध सही नहीं है , लेकिन इस आधार पर सारे सांस्कृतिक , व्यापारिक ,खेल संबंध को काट लेना खुद हमारे हित में नहीं है । इन अतिराष्ट्रवादियों ने देश को नुकसान ही पहुँचाया है और देश  के लिए पाकिस्तान, मुसलमान और वामपंथियों से घृणा के अलावा कोई सकारात्मक कदम या योजना नहीं है । इनका उत्पात इसी तरह चलता रहा और राष्ट्रद्रोह को इसी लापरवाही से इस्तेमाल किया जाता रहा तो जल्द ही राष्ट्रद्रोह और राष्ट्रद्रोही चूतिया टाइप एक गाली होगी जिसे कोई गंभीरता से नहीं लेगा । यूँ कहा जाएगा
-         पाद दिया ¡ वायु प्रदुषण फैलाता है राष्ट्रद्रोही ¿



शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

बैडमिंटन !



बैडमिंटन !
सिंधू के ओलंपिक में बैडमिंटन का एकल रजत पदक जीतने से बैडमिंटन खेल की काफी चर्चा है । मुझे  अपने कस्बे के वे बच्चे याद  आ रहे हैं जो सड़क पर बैडमिंटन जैसा खेल खेलते थे । कटे फटे गत्ते को रैकेट बना लेते थे और गेंदा फूल को कॉर्क ¡ जमीन पर लकीर खिंच कर पाला बना लेते थे । जाड़े के दिनों में शाम को खेला होता था ।खेलने के लिए घर वालों से डाँट सुनते हुए , आ ते जाते वाहन चालकों से गालियाँ सुनते हुए भी खेलते थे । उनमें कुछ स्कूल जाते थे, कुछ नहीं ।
जो स्कूल जाते थे वे भी एक एक कर पढ़ाई छोड़ते गए । कोई आठवीं में , कोई दसवीं में । वे जवान होने से पहले ही घर के बड़े हो गए और खेल के बजाए कमाने और घर चलाने की जिम्मेदारी में खेलना भूल गए ।
सोच रहा हूँ , क्या होता यदि उन्हें खेलने के लिए मैदान दिया जाता , रैकेट और कॉर्क की अबाध सप्लाई होती , कमसिन उम्र में घर चलाने की जिम्मेदारी से आजाद होते ,कोई उन्हें बताता कि बढ़या खेल कर भी अच्छी जिंदगी जी जा सकती है ? शायद तब हमारे पास ढेर सारे बैडमिंटन के विजेता होते ।
क्या अब भी स्थिति बदलने की कोशिश की जा रही है ?की जाएगी ??


मंगलवार, 2 अगस्त 2016

पश्चिम बंगाल नहीं बंगाल



पश्चिम बंगाल का नाम बदल कर बंगाल करने का प्रस्ताव विचाराधीन है । निश्चय ही पश्चिम बंगाल उस दौर की निशानी है जब भारत अविभाज्य था और पूरा बंगाल भारत में था । राजनीतिक कारणों से बंगाल का विभाजन करने की कोशिश भारत की आजादी के पहले भी हुआ था । फिर 47 में बांग्लादेश पूर्वी पाकिस्तान के रूप में भारत से अलग हो गया । लेकिन भारत में बचा हिस्सा बंगाल के बजाय पश्चिम बंगाल कहलाता रहा जबकि भारत के हिसाब से पूर्व में पड़ता था । पश्चिम हटने के साथ ही उस दौर की निशानी भी जाएगी ।
इन दिनों कश्मीर विभाजन और तत्सम्बंधी परेशानियों से जूझता नजर आता है। लेकिन सच पूछिए तो विभाजन की त्रासदी तो सबसे ज्यादा बंगालियों और पंजाबियों को भोगनी पड़ी है । साझा संस्कृति, भाषा और साहित्य वाले दो अलग अलग राष्ट्रियता में बाँट गए । विभाजन के दौरान सबसे ज्यादा हिंसा और पलायन भी इन्ही के हिस्से आया ।
एक बात और काबिलेगौर है । कहीं पढ़ा था कि कहीं विदेश में भारत और पाकिस्तान के पंजाबी मिलते हैं तो अपनी पहचान पंजाबी के रुप में देते हैं और भिन्न राष्ट्रियता पर सांस्कृतिक एकता भारी पड़ती है । इसके विपरीत कोलकाता में रहते हुये नोट किया कि बंगाली भी बंगलादेशी को हिकारत की नजर से देखते हैं और गाली देने के लिए " बंगलादेशी " कहते हैं । पंजाब और बंगाल का यह अंतर कोई समाजशास्त्री और या संस्कृति विशेषज्ञ ही समझा सकता है ।
खैर !नाम बदलने की कवायद और राजनीति का विरोध ही करता रहा हूँ। लेकिन यह परिवर्तन स्वीकार योग्य है।
http://timesofindia.indiatimes.com/india/West-Bengal-name-change-Proposal-to-rename-it-Bengal-Bangla-Banga/articleshow/53504353.cms

सोमवार, 1 अगस्त 2016

भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों को आवास !



खबर पढ़ी कि सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि उत्तर प्रदेश में भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों को दिये गए बंगले खाली करवाए जाएँ । आप चाहें तो इसे कानून की सर्वोच्चता के रूप में देख सकते हैं। न्याय के रूप में देख सकते हैं । लेकिन मैं इसे सिस्टम फेलियर के रूप में देखता हूँ। यहा सहज बुद्धि की बात है कि सरकार द्वारा वर्तमान मुख्यमंत्री को आवास मुहैया करना तो ठीक है लेकिन भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों को आवास मुहैया करवाने का कोई तूक नहीं है ।
हैरानी है कि यह बात भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों को नहीं समझ में आया जबकि उनके लिए आवास कोई समस्या नहीं है। इसके लिए एक संस्था को कोर्ट जाना पड़ा । सुप्रीम कोर्ट का समय और संसाधन एक ऐसे मामले में बर्बाद हुआ जो उठना ही नहीं चाहिए । मुझे आश्चर्य नहीं होगा यदि सरकार कोई घेरा काट कर दूसरा रास्ता निकाल ले भूतपुर्व मुख्यमंत्रियों को आवास देने के लिए ।
यहाँ भिन्न और प्रतिद्वंदी पार्टियों की एकता देखते ही बनती है।लाभूक कल्याण सिंह, मुलायम , मायावती आदि हैं।

नोबो



नोबो !
एक श्रमिक संघटन है - भारतीय मजदूर संघ । कहने के लिए स्वतंत्र है लेकिन संघ और भाजपा से नाभिनाल संबंध है । जैसा कि संघ के अनुसंगी संघटनों की कार्यशैली है - वे कभी भी अपने संबंध को स्वीकार नहीं करते, बस प्रभाव की बात मानते हैं। लेकिन व्यवहार में संघ से नियंत्रित होते हैं। जैसे एबीवीपी स्वतंत्र छात्र संघटन होने का दावा करती है लेकिन इसके छात्र नेता भाजपा में उच्च पदों पर गए हैं और मंत्री भी बने हैं । इसी तरह बीएमएस के कार्यक्रमों में भाजपा नेताओं की उपस्थिती नोट कीजिये , इनके नेताओं द्वारा भाजपा सरकार के लिए अपनी सरकार का सम्बोधन सुनिए तो स्पष्ट हो जाएगा कि बीएमएस किसका संघटन है ।
हाल फिलहाल में यूएफ़बीयू द्वारा आहूत हड़ताल में बीएमएस की बैंकिंग शाखा एनओबीओ भी शामिल थी । यह देखना दिलचस्प था कि जिस सरकार को यह अपनी सरकार कहती है उसीके के द्वारा प्रस्तावित मरजर आदि के विरोध में भी शामिल थे। यदि सरकार उनकी है तो फिर सरकार पर सीधे दबाव क्यों नहीं डाला गया ? ये दोनों तरफ होने का क्या मतलब है ? या कोई मतलब ही नहीं है ?
कोई समझाये जरा !