मंगलवार, 14 मार्च 2017

पर्व त्योहार की आलोचना पर आपत्तियों का उत्तर

जब भी पर्व त्योहारों पर किसी कमी या प्रचलन पर कटाक्षनुमा वनलाइनर या कोई आलोचनात्मक टिप्पणी करता हूँ , अलग अलग लोगों की अलग प्रतिक्रिया आती है । जो कट्टर हिंदूत्व के समर्थक हैं , उनके व्यक्तिगत हमलों और उग्र कई बार अशालीन प्रतिक्रिया को छोड़ भी दे दूँ तो कई लोग जो सभ्य भाषा में आपत्ति जताते हैं , इसे कुतर्क और गैरजरुरी बताते हैं , उनके लिए यह पोस्ट है ।
पहली आपत्ति - कुछ आलोचना से सहमति जताते हैं । लेकिन इन्हें आलोचना गैरजरुरी लगती है । इन्हें लगता है कि समय के साथ सब बदल गया है और अपने आप बदल जाएगा ।
जवाब है कि बदलाव खुद नहीं आते , यह सतत प्रयास का नतीजा है । आज जो भी सकारात्मक परिवर्तन देखा जा सकता है , वह इसलिए है कि किसी ने कभी आपत्ति उठाई , आलोचना , गालियाँ सुनी , गोलियाँ खाई । यह हमारी जिम्मेदारी है कि आलोचना और परिष्कार की परंपरा को जिंदा रखें । कम से कम मैं अपने स्तर पर करता रहूँगा ।
दूसरी आलोचना - त्योहार के मौके पर क्यों ? रंग में भंग क्यों ?
जवाब है - जब आलोचना त्योहार और परंपरा की है तभी तो मामला उठेगा , जब मनाया जा रहा है । क्योंकि व्यवहार में अंतर इसी मौके पर पैदा किया जा सकता है । दूसरे -क्रिया जब हो रही है तो प्रतिक्रिया भी उसी समय होगी ।
तीसरी आलोचना - इससे कोई बदलाव नहीं आता है ।
जवाब है - हर लिखे और कहे शब्द और विचार का असर होता है । बदलाव तुरंत नहीं दिखता है । लेकिन इसके लिए प्रयास करते रहना चाहिए । कम से कम उसे मजबूत करने में मेरा योगदान नहीं होगा जिसे मैं गलत मानता हूँ ।
चौथी आलोचना - कुतर्क है । कुंठा है ।
जवाब है - कैसे पूछने पर तो जवाब नहीं मिलता है । व्यक्तिगत हो जाने का मतलब यही है कि जवाब नहीं है और संवाद के बजाए मुँह बंद करने की कोशीश है ।
पाँचवी आपत्ति - भावनाएं भड़का रहे हैं ।
जवाब है - मैं नास्तिक हूँ । इतना कहते ही धार्मिकों की भावना आहत हो जाती है । तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ? भावना आहत हो जाने के डर से तोकोई भी कुछ भी नहीं लिख / बोल सकेगा । जो भी निशाने पर होगा उसकी भावना आहत होगी । लोगों के पास विकल्प है कि वे न भड़कें और तथ्य और तर्क दें ।
छठी आपत्ति - सामाजिकता है ।उत्सव है ।
जवाब है - सामाजिकता के लिए धार्मिक पर्व ही एकमात्र विकल्प नहीं है । सामाजिकता और उत्सव के लिए ज्यादा उपयोगी और कम न्यूसेंस पैदा करने वाले मौके हैं । धार्मिक / पारंपरिक त्योहारों - कहिए कि इसे मनाने के तरीके जिसका धार्मिकता से कुछ लेना देना नहीं है - जैसे जबरदस्ती चंदा उगाही आदि - का विरोध असामाजिक होना नहीं है ।
बाकी अगली किश्त में ।

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