सोमवार, 27 मार्च 2017

बैंक बैंकर होम लोन की ईएमआई ने बैंकरों की रीढ़ की हड्डी तोड दी है ।

इन दिनों बैंकरों में अजब किस्म की रीढ़विहीनता आ गयी है । हालाँकि यह एक जटिल विषय है और इसके तमाम पहलूओँ पर विचार एक पोस्ट में तो कतई संभव नहीं है ।
फिर भी कहना चाहूँगा कि यह रीढ़विहीनता हाल के दिनों में बढ़ी है और बढ़ती ही जा रही है । नौकरी करने की अपनी सीमा है । नौकरी खोने का डर वाजिब है । शिकायत इससे नहीं है । शिकायत उस चरण चुंबन प्रवृत्ति से है जहाँ बॉस बोले तुम गधे हो और बैंकर बोले - यस सर ! शिकायत उस डर से हैं जहाँ अनैतिक /भ्रष्ट काम भी सहमत न होने के बाद करते हैं कि बॉस को न कैसें बोले !शिकायत इससे है कि कोई ग्राहक /नेता बैंकर को गाली देकर /पीट कर चला जाता है और हम इसे सामान्य घटना की तरह लेते हैं ।
इस रेंगने वाली प्रवृति के तमाम कारण हो सकते हैं । लेकिन मुझे जो बड़ा कारण -हालाँकि एक मात्र कारण नहीं - लगता है साधारण ब्याज पर मिलने वाला गृह और वाहन ऋण । खासतौर से गृह ऋण ।
एक दो पीढ़ी पीछे तक आम मध्यमवर्गीय व्यक्ति घर तब बनाता था जब अन्य पारिवारिक जिम्मेदारी - मसलन बच्चों की पढ़ाई , शादी आदि निबटा लेता था । मने उम्र के अंतिम पढ़ाव पर । इसके लिए वह ऋण से ज्यादा अपने बचत, पीएफ फंड , रिटायरमेंट फंड पर निर्भर रहता था । अगर ऋण लेता भी था तो बहुत मामुली हिस्सा ।
इसके उलट आज के दौर में लोग तीस की उम्र में गृह ऋण ले रहे हैं । तीस साल की भूगतान अवधि का मतलब है लगभग पुरी नौकरी और उसकी आय कर्मचारी ने बंधक रख दी है । चूँकि कर्मचारियों को ब्याज में छूट मिलती है - साधारण ब्याज लगाया जाता है , क्रमिक भूगतान , बलूनिंग आदि का फायदा मिलता है तो वे बड़ा से बड़ा ऋण लेते हैं जो समान वेतन वाला लेकिन अन्य विभाग में नौकरी करने वाला अफोर्ड नहीं कर पाता । वे तब भी ऋण लेते हैं जब कि साठ साल तक उस फ्लैट में रह भी नहीं सकते तबादले के कारण । वे शुरुआत में ही ऋण लेकर फ्लैट लेना चाहते हैं ताकि कीमत में बढ़ोतरी का लाभ ले सकें । मार्जिन मनी न होने पर भी ऋण ले रहे है । मार्जिन मनी के लिए अलग से सोसायटी से ऋण ले रहे हैं । फिर कार भी चलानी है । मने कर्ज में नाक तक डूबने का पुरा इंतजाम है । एक झटका लगा और सिर भी पानी के अंदर ।
ऋण लेने का मतलब है भविष्य की आय को बंधक रखना । कमाने से पहले खर्च करना । इससे होता है कि ईएमआई को बोझ तले बैंकर की रीढ़ की हड्डी ही टूट जाती है और वह चूँ भी नहीं कर पाता है ।
नौकरीपेशा लोग न क्रांतिकारी हो सकते हैं और न ही विद्रोही । ऐसा अपेक्षित भी नहीं है । लेकिन कहीं तो सीमा रेखा खिंचनी ही पड़ेगी कि आत्म सम्मान बचा रहे , कि अपने होने पर भी शर्म न आने लगे ।
बैंकर मित्रों से अनुरोध है कि नौकरी भी बचाएँ , घर भी बनाएँ लेकिन रीढ
की हड्डी भी बचाकर रखें ।
#बैंक_बैंकर

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