इन दिनों बैंक और बैंकरों ( खास तौर
से वे जो फील्ड ऑफिसर कहलाते हैं, मतलब शाखा स्तर पर काम करने वाले ) के लिए एक तरफ कुआं है दूसरी तरफ खाई
है। एक तरफ ग्राहक से कागज/प्रूफ मांगेंगे तो शिकायत होती है कि ग्राहक को परेशान
कर रहे हैं, अच्छी ग्राहक देवा नहीं दे रहे हैं। खाता बंद
करने की धमकी तो तुरंत मिल ही जाती है साथ ही शिकायत भी कर दी जाती है । जिसे दूर
करने की ज़िम्मेदारी भी बैंकरों की ही होती है । इस बात से कोई सरोकार नहीं रखा
जाता कि ग्राहक की सारी शिकायतें जायज नहीं होती। कई बार तो वे फोरम भरने ,
सूचना देने , साइन करने से भी माना कर देते
हैं , ऐसी मांग रखते हैं जो बैंक की नियमावली के अनुसार नहीं
मानी जा सकती है - जैसे साइन न मिलने पर भी भुगतान ।
अगर ग्राहक सेवा के नाम पर नियमों में
ढील दे दी तो , बड़ा ग्राहक है कहीं
शिकायत न कर दे के डर से कोई नाजायज मांग मान ली , या जल्दी
सर्विस देने के चक्कर में शॉर्टकट अपनाया और कोई गलती हो गई तो काम में लापरवाही
का आरोप लगता है, फिर शो कौज। चार्ज शीट , जांच प्रक्रिया , सजा , शुरू
हो जाती है । क्या ऐसी गलतियों के लिये नाजायज दबाव जिम्मेदार नहीं है ?
यहाँ ग्राहक की चित्त भी मेरी और पट
भी मेरी होता है और बैंकर हर हाल में फँसता है ।
बैंकर कोई भी निर्णय ले, गलत साबित होने और सजा पाने के लिए अभिशप्त
है। बैंकरों में बढ़ते तनाव और आत्महत्या का एक कारण यह भी है कि नितांत विरोधी
उद्देश्यों में सामंजस्य बैठाने की अपेक्षा की जाती है जो व्यवहार में असंभव नहीं
तो कठिन और तनावपूर्ण जरूर है । प्रोसीजर अँड प्रैक्टिस डिफर्स के नाम पर जब
प्रोसीजर फॉलो करें तो -तुम प्रैक्टिकल नहीं हो - और प्रैक्टिस फॉलो करें तो -
तुम्हें नियमों की जानकारी नहीं है अजीब सी स्थिति बना दी गई है जहां कुछ भी करें
गलत बैंकर ही बनेगा ।
ऐसे में क्या यह जरूरी नहीं हो गया है
कि स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए कि क्या महत्वपूर्ण है ? ग्राहक सेवा के लिए नियमों में कहाँ तक छुट दी
जा सकती है ? ग्राहक के नाजायज मांग ठुकराने पर शिकायत होने
पर बैंकर को प्रताड़ित न किया जाये । नियम के बाहर कोई भी बैंक बिजनेस बढ़ाने के नाम
पर सेवा न दे । आदि ।
http://timesofindia.indiatimes.com/business/india-business/RBI-imposes-Rs-2-crore-penalty-on-HDFC-Bank/articleshow/53380539.cms
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