शनिवार, 23 जुलाई 2016

मदारी



मदारी
कुछ शुक्रवार ऐसे होते हैं जिसमें कई फिल्म एक साथ  रिलीज होती हैं। ऐसे में प्राथमिकता तय करनी पड़ती है । ऐसे में कल    “कबाली” के बजाय “मदारी” देखना तय किया । किसी सुपर स्टार से ज्यादा फिल्म के विषय वस्तु का तरजीह दी । आज जब दोनोंफिल्म देख चुका हूँ , कह सकता हूँ सही फैसला किया ।
मदारी जैसा की ट्रेलर से  ही स्पष्ट था –वेंजड़े “ जैसी फिल्म होगी जिसमें एक आम आदमी सिस्टम से लोहा लेता है। एक शख्स गृह मंत्री के बेटे का अपहरण कर लेता है और उन्हे अपने बेटे को ढूँढने के लिए कहता है । पूरी फिल्म में  इरफान अपहृत बालक को लेकर घूमता रहता है और साथ चलती है उसे पकड़ने की कोशिशें।
फ्लैश बैक में पता चलता है जिस बच्चे को ढूँढने के लिए कहा जा रहा है वह एक दुर्घटना में मर चुका है । और दुर्घटना के जिम्मेदार नेता, ठेकेदार , अधिकारी का भ्रष्टाचार है जिसे वह एक्सपोज करना चाहता है।
फिल्म में मुझे दो बातें काफी अच्छी लगी। एक पिता का वात्सल्य।  हमारी फिल्मों और समाज में माँ की ममता को इतना महिमामंडित किया गया है कि पिता खलनायक लगता है । उसका चचा रूप दिखाया जाता भी है तो एक पूर्तिकर्ता , सहारे के रूप में , प्यार करने वाले के रूप में नहीं। इसमें एक सिंगल पिता और उसके 7 साल के बेटे के बीच जिस स्तर का मित्रतापूर्ण  संबंध है वह समाज क्या फिल्म में भी  दुर्लभ है ।
दूसरे अपहृत बच्चे और अपहरणकर्ता के बीच जो “स्टॉकहोम सिंड्रोम” वाला संबंध विकसित होता है , वह काफी प्रभावित करता है। वह उससे कठोरता से पेश आना चाहता है,  मगर बाप की तरह पेश आता है । बच्चा पहले उस पर हावी होने की कोशिश करता है, फिर डरता है और अंत में गहरे समानुभूति के धरातल पर जुड़ता है।
फिल्म में एक बात  मार्के की कही गई है । सिस्टम में भ्रष्टाचार नहीं है, भ्रष्टाचार ही सिस्टम है । सरकार भ्रष्ट नहीं है , भ्रष्टाचार के लिए ही सरकार है । कोई  फर्क नहीं पड़ता है सत्ता  में कौन है। इतना पैसा कोई अकेले नहीं खा सकता , इसलिए सब मिलकर खाते हैं।  और जनता ? बंटी हुई है ।
फिल्म में संवाद बहुत अच्छे हैं । इरफान पिता और पहली बार अपराध कर रहे व्यक्ति की भूमिका को बहुत अच्छे से जीते  हैं । खासतौर से अपने बेटे के मरने पर     वे जिस तरह उनके बैग और जूते को पकड़े  हुये आते जाते को पकड़ पकड़ कर बताते हैं , वह द्रवित कर देता है। थ्रिलर के बजाय इस फिल्म में  ड्रामा हावी है।
बाज चूहे पर   झपटा कहानी सच्ची लगती है  मगर अच्छी नहीं लगती । चूहा बाज पर झपटा , कहानी सच्ची नहीं लगती  मगर दिल को बहुत अच्छी  लगती है। फिल्म एक झूठ है जो सच दिखाती है ।

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