रविवार, 1 जनवरी 2017

गया साल 2016- लेखा जोखा



गया साल 2016- लेखा जोखा
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2016 साल में ऐसा कुछ किया नहीं या हुआ नहीं जिसकी वजह से इस साल को याद रखा जाए । बस यूँ ही गुजर गया । साल की शुरुआत ही खराब रही जब गहरे डिप्रेशन में था । हालाँकि यह कोई नई बात नहीं है मेरे लिए , लेकिन इस बार हमला ज्यादा तेज था ।
बाहर निकलने के लिए प्रयास किए लेकिन कामयाब नहीं हुआ । हिंदीं में दूबारा एडमिशन लेकर पढ़ाई करने की कोशिश की , लेकिन नहीं हो पाया । शायद डिग्री वाली पढ़ाई मुझसे हो भी नहीं हो पाएगी , करने की ईच्छा और न कर पाने का मलाल चाहे जितना हो ।
एक टैब खरीदा , जिस पर किताबें पढ़ने की कोशिश की । लेकिन हिंदी किताबों की कम उपलब्धता के कारण सुरेंद्र मोहन पाठक के पढ़े हुए उपन्यास ही दुबारा पढ़े ज्यादातर । कुछ अच्छी किताबें भी पढ़ीं । कम से कम ई बुक पढ़ने की शुरुआत तो हुई ।
साल के अंत में पुस्तक मेले से ढेर सारी किताबें खरीदी । कुछ किताबें ही पुरी पढ़ पाया, ज्यादातर शुरुआत तो की पर खत्म न कर पाया । किताबों में कोई खामी न थी , बस मैं ही न पढ़ पाया । लगभग सभी किताबें अँग्रेजी में थी जिसमें मेरा हाथ जरा तंग है ।
फेसबुक पर कुछ कुछ लिखता रहा लेकिन लिखने लायक जैसा कुछ लिखा नहीं । अब तो यह सोच कर भी गहरी शर्मिंदगी होती है कि कभी लेखक बनने की ख्वाहिश थी ।
डिप्रेशन के लंबे लंबे दौर चले । निजी रखरखाव बहुत खराब हो गया था । स्मोकिंग दिन में दो पैकेट के खतरनाक स्तर तक चली गई । चाय घंटे घंटे पर पीने लगा था । भाषा का स्तर बहुत गिर गया था । तुनकमिजाजी और चिढ़चिढ़ापन असामान्य होने लगा । पेट की अलामत के साथ गले की अलामत साथ लग गई । ऐसी खाँसी है कि छूट ही नहीं रही ।
वैसे कई बार खुद को संभालने और जिंदगी को पटरी पर लाने की कोशिश की , खास तौर से साल के अंत में । मकान बदल कर ज्यादा व्यवस्थित तरीके से रहने लगा । स्मोकिंग और चाय कम से कम फिलहाल एकदम छोड़ दी है । कुछ पन्ने ही सही , रोज कुछ न कुछ किताब से पढ़ता हूँ । अखबार फिर से गंभीरता से पढ़ना शुरु किया ।खाना खुद बनाना फिर से शुरु किया । जिम जाना भी शुरु किया लेकिन रेगुलर हो न सका । फिर छूट गया । फेसबुक पर कुछ कुछ लिखता रहा ।
अवसाद से उबरने के लिए ही सही आसपास कई जगहों की छोटी यात्राएँ की । जिसमें तवाँग का दौरा सबसे बेहतर था ।
साल के पहसे हाफ में जहाँ रिलीज होने वाली हर फिल्म देखता था , वहीं साल के अंतिम महीनों में फिल्म देखना - न हॉल में , न लैपटॉप पर - बिल्कुल छोड़ दिया है ।
ऑफिस में कुछ खास उपलब्धि रही नहीं । मैं बैंक को झेल रहा हूँ , बैंक भी मुझे झेल रही है । बैंक मुझे कार्नर किए हुए है और बैंक कभी मेरी जिंदगी के सेंटर में रही ही नहीं । यूनियन छोड़ दी । न मुझे अफसोस है, न उन्हें परवाह हुई । विवाद ज्यादा हुए जिनसे बचा जा सकता था , बशर्ते बच कर चलना सीखा होता जिसकी कभी आदत नहीं रही ।
शादी हुई नहीं , न ही करने के लिए कोई खास प्रयास किया । ज्यादातर समय भूला रहता हूँ । कभी कभी बीमार होने या डिप्रेशन में सोचता हूँ तो आँख मूंदकर शादी कर लेने या हमेशा के लिए भूल जाने के बीच झूलता हूँ । शादी को अनिवार्य नहीं मानता लेकिन विरोधी भी नहीं हूँ । एक तरह का उपेक्षा भाव है । न होने की एक वजह यह भी हो सकती है ।
खैर !

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