मंगलवार, 1 नवंबर 2016

मुठभेड़ में मौत



पुलिस मुठभेड़ - चाहे भोपाल का मामला हो या कोई और , मरने वाले कथित आतंकवादी हों या कथित अपराधी, पुलिस का वर्जन आँख मूँद कर नहीं माना जा सकता है । इसका मतलब यह नहीं कि पुलिस को अनिवार्यत: झूठा माना जाए, बल्कि यह है कि पुलिस का वर्जन क्रॉस चेक/ स्क्रुटिनी में टिकना चाहिए ।
भारत में पुलिस की छवि " वर्दी वाला गुंडा " की है । इसके लिए पुलिस और उसकी कार्यप्रणाली ही सबसे ज्यादा दोषी है । पुलिस से अपराधी कम आमजन ज्यादा खौफ खाते हैं । तमाम तरह के अपराधों और अपराधियों को संरक्षण देने में पुलिस की भूमिका जग जाहिर है । ऐसे में पुलिस का वर्जन अनालोच्य नहीं माना जा सकता है ।
जो लोग राष्ट्रवाद और आतंकवाद का नाम लेकर पुलिस पर सवाल उठाने को गलत बता रहे हैं , उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि लोकतंत्र में किसी को भी असीमित अधिकार नहीं है और अधिकार के साथ जिम्मेदारी और जवाबदेही भी जुड़ी है । पुलिस को यदि अधिकार हैं तो वे जवाबदेही से नहीं बच सकते ।
जो अपराध और आतंकवाद के विरोध के नाम पर मुठभेड़ में की गई हत्याओं का जश्न मना रहे हैं , वे नहीं जानते कि कल वे भी इसके शिकार हो सकते हैं । पुलिस को " लाइसेंस टू किल" नहीं जारी किया जा सकता ।
मुठभेड़ में हुई हत्याओं का विरोध आतंकवाद का समर्थन नहीं है । जिनकी संलिपत्ता आतंकवादी गतिविधियों में पाई जाती है , उन्हें फेयर और फास्ट ट्रायल देकर सजा दी सकती है । लेकिन शक के आधार पर किसी को भी उठा लेना , सालों जेल में डाले रखना और केस का किसी नतीजे पर नहीं पहूँचना,कस्टडी में मौत, मुठभेड़ में मौत आदि को सही
नहीं ठहराया जा सकता है ।
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