शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

बैंकर और सैनिक

चूँकि इन दिनों हर बात में सेना और सैनिकों का हवाला दिया जा रहा हा , इसलिए सेना का ही उदाहरण देता हूँ । कल्पना कीजिए - मोदी एक दिन अचानक युद्ध का ऐलान करते हैं और सेना को पाकिस्तान पर हमला करने के लिए कहते हैं । पुरे देश के साथ सेना भी चकित है । सेना आपात स्थिति से निपटने के लिए हमेशा तैयार रहती है , लेकिन युद्ध पर जाने के लिए भी कुछ तैयारी करनी पड़ती है । मसलन टुकड़ी को सीमा पर लगाना , टैक, विमान आदि सीमा के करीब वाली चौकी पर पहुँचाना । बैक अप तैयार करना आदि । लेकिन मान लीजिए सेना को बिना तैयारी के युद्ध में झोंक दिया जाए तो कैसी अफरा तफरी मचेगी ।
इसलिए तनाव की स्थिति होते ही सेना को अलर्ट जारी किया जाता है । सैन्य प्रमुखों को भरोसे में लिया जाता है ।
बैंक में बड़े नोट बैन करके जैसे बिना तैयारी के बैंक कर्मियों और जनता को अधर में लटका दिया गया है । बैंको को इसकी न जानकारी थी । चलिए गोपनीयता के लिए जानकारी नहीं दी गई माना जा सकता है । लेकिन नोटों की आपुर्ति ही नहीं है तो बैंक कर्मी क्या करेंगे ? यह बिल्कुल ऐसा है जैसे सेना को बिना गोला बारुद के युद्ध में झोंक दिया जाए । काम के बोझ से परेशानी नहीं है , लेकिन यकीन मानिए जितनी देर एक ग्राहक को यह समझाने में लगता है कि क्यों पेमेंट नहीं कर सकते, उतनी देर में तीन ग्राहकों को भूगतान कर सकते थे, यदि नोटों की व्यवस्था होती !
अब दूसरी बात । सेना को आज्ञा कारी और हर हाल मेें आदेश मानने की ट्रेनिंग और प्रावधान है । लेकिन कुछ मौकों पर सेना ने सरकार की ईच्छा का विरोध किया है और आदेश मानने में असमर्थता जताई है । जैसे - पुर्व गृहमंत्री नक्सलियों के खिलाफ सेना उतारना चाहते थे और तत्कालीन सेना प्रमुख ने विरोध जताया था और यह बेल मुंडेर नहीं चढ़ी । स्मृति के सहारे लिख रहा हूँ । लिंक गुगल कर लें ।
यह उदाहरण इसलिए दिया कि लोकतंत्र में शासक अपनी मनमर्जी नहीं कर सकता है । निश्चय ही सरकार के पास नीतिगत फैसले की ताकत हैं, लेकिन जिन संस्थाओं को इन फैसलों का क्रियान्वन करना है , उन्हें भी प्रक्रिया में शामिल किया जाता है । उनकी आपत्तियों , सुझावों को संज्ञान लिया जाता है । और यह संस्थानों की भी जवाबदेही है । खुद भूतपुर्व आरबीआई गवर्नर ने खुले आम सरकार की कई मंशाओं का सार्वजनिक विरोध किया क्योंकि वे उसे सही नहीं मानते थे और उनके रहते हो भी नहीं पाया । जैसे रेट कम करना आदि जो उनके जाते ही नए गवर्नर द्वारा मान लिया गया ।
अब बैंक के टॉप मैनेजमेंट और उनकी संस्था आईबीए को परखते हैं । लगता है वे सरकार के सामने यस सर के अलावा कुछ नहीं बोल पाते । बैंक में नोट बदलने से लेकर जन धन , मुद्रा , एपीवाई आदि सबमें जब योजनाएँ लागू हुईं तो बैंक के पास स्पष्ट दिशा निर्देश तक नहीं थे । जो समय सीमा और लक्ष्य दिए गए वे अव्यावहारिक थे । , और मेरे ध्यान में ऐसा कोई बयान तक याद नहीं आता जिनमें बिना तैयारी के योजना लागू करने की आलोचना की गई हो यो तैयारी के लिए पर्याप्त समय की माँग की गई हो या इसके लिए दवाब बनाया गया हो । आपके ध्यान में है तो कृपया मेरी जानकारी बढ़ाएँ । ऐसा लगता है कि बैंक - जो कि फिलहाल सरकार की सभी महत्वाकांक्षी योजनाओं को लागू करने वाली प्रमुख एजेंसी है - ने अपनी बारगेनिंग पावर खो दी है ।योजना का क्रियान्वन करने वाली संस्था को अंधेरे में रखकर ,

उन्हें बिना पर्याप्त साधन और समय दिए योजना की सफलता की उम्मीद नहीं की सकती ।

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