बुधवार, 19 जुलाई 2017

मायावती का इस्तिफा

संसंसद विचार विमर्श की जगह है । राजतंत्र में जब मुद्दे तलवार के दम पर तय होते थे , तब भी सूलह समझौते की गुंजाइश होती थी । लोकतंत्र में तो संसद है ही इसलिए कि लोग विचार विमर्श के बाद बहुमत के आधार पर निर्णय ले ।
ऐसे में मायावती को सहारनपुर के दलित विरुद्ध हिंसा पर न बोलने न देना , एक अलोकतांत्रिक कदम है । मायावती से असहमति और विरोध जताया जा सकता था, तर्क और तथ्य के सथ, लेकिन हुल्लड़बाजी कर बोलने से रोकना किसी भी तरह उचित नहीं है ।
बेहतर होता , कि मायावती इस्तिफा देने के बजाए हर हाल में अपना वक्तव्य देतीं या वही वक्तव्य प्रेस कान्फ्रेंस में देकर कर साथ में सोशल मीडिया के सहयोग से जन जन में फैलातीं । हालाँकि इस्तिफा देना भी गलत नहीं है ।
मायावती के विरोधी उन्हें दौलत की बेटी और जमीन से दूर नेत्री कहकर आलोचना करते रहे हैं । लेकिन इस मौके पर मायावती ने दिखाया कि उनके लिए दलित और उनके मुद्दे महत्वपूर्ण हैं ।
लालू यादव द्वारा उन्हें राज्यसभा भेजने का प्रस्ताव दलित पिछड़ों को सामाजिक और राजनीतिक एकता के लिए सकारात्मक कदम है ।हालाँकि इतना काफी नहीं और काफी कुछ किये जाने की जरुरत है ।
लोकतंत्र में संसद का रास्ता सड़क से होकर जाता है । संसद न सही , सड़क पर मायावती और अन्य बहुजन नेताओं को बोलना चाहिए ।
यह सवाल भी भाजपा के बहुजन नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि आखिर उन्होंने संसद में सहारनपुर और दलित उत्पीड़न के अन्य मुद्दे संसद में क्यों नहीं उठाये ? मायावती जब उन मुद्अदों को उठा रही थी तो पार्पटी लाइन के खिलाफ जाकर उनका समर्नेथन क्यों नहीं किया ? अपने क्षेत्र में बहुजनों के सशक्तिकरण के लिए कौन कौन से उपाय किये ?

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