शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

बैडमिंटन !



बैडमिंटन !
सिंधू के ओलंपिक में बैडमिंटन का एकल रजत पदक जीतने से बैडमिंटन खेल की काफी चर्चा है । मुझे  अपने कस्बे के वे बच्चे याद  आ रहे हैं जो सड़क पर बैडमिंटन जैसा खेल खेलते थे । कटे फटे गत्ते को रैकेट बना लेते थे और गेंदा फूल को कॉर्क ¡ जमीन पर लकीर खिंच कर पाला बना लेते थे । जाड़े के दिनों में शाम को खेला होता था ।खेलने के लिए घर वालों से डाँट सुनते हुए , आ ते जाते वाहन चालकों से गालियाँ सुनते हुए भी खेलते थे । उनमें कुछ स्कूल जाते थे, कुछ नहीं ।
जो स्कूल जाते थे वे भी एक एक कर पढ़ाई छोड़ते गए । कोई आठवीं में , कोई दसवीं में । वे जवान होने से पहले ही घर के बड़े हो गए और खेल के बजाए कमाने और घर चलाने की जिम्मेदारी में खेलना भूल गए ।
सोच रहा हूँ , क्या होता यदि उन्हें खेलने के लिए मैदान दिया जाता , रैकेट और कॉर्क की अबाध सप्लाई होती , कमसिन उम्र में घर चलाने की जिम्मेदारी से आजाद होते ,कोई उन्हें बताता कि बढ़या खेल कर भी अच्छी जिंदगी जी जा सकती है ? शायद तब हमारे पास ढेर सारे बैडमिंटन के विजेता होते ।
क्या अब भी स्थिति बदलने की कोशिश की जा रही है ?की जाएगी ??


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